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________________ १०२ / जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका (४) प्रदेशबन्ध-प्रदेश अर्थात् कर्मदलिकों के समूह का न्यूनाधिकरूप में जीव के साथ बँध जाना प्रदेशबन्ध है। जीव के द्वारा ग्रहण किये जाने के पश्चात् भिन्न-भिन्न स्वभाव में परिणत होने वाला कर्मपुद्गल समूह अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अमुकअमुक परिमाण में विभक्त हो जाता है । प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग के कारण तथा स्थितिटन्ध और अनुभागबन्ध कषाय के कारण होते हैं । (8) मोक्षतत्त्व मोक्ष, बन्ध का प्रतिपक्षी है। इसलिए बन्ध के कारणों का अभाव होकर निर्जरा द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाना ही मोक्ष है।' आठों कर्मों से बंधा हुआ भव्य जीव, कभी न कभी संवर और निर्जरा के द्वारा पूर्णरूप से कर्मबन्धन से छूटता ही है। जब आत्मा पूर्ण रूप से कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है, तब वह अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है, वही अवस्था मोक्ष या मुक्ति कहलाती है। कर्मरहित जीव की शुद्ध अवस्था को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष प्राप्त होने पर न तो नए कर्म बंधने की कोई संभावना रहती है, और न ही पूर्वबद्ध कोई कर्म सर्वथा क्षय होने से बचता है। तात्पर्य यह है कि मुक्त अवस्था में जोव कर्मों से पूर्णतया निर्लेप हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के कारण-मोक्ष प्राप्त करने के मुख्य तीन कारण साधन हैं-(१) सम्यग्दर्शन, (२) सम्यग्ज्ञान, और (३) सम्यक्चारित्र। जैनशास्त्रों में 'तप' को भी मोक्ष का एक अंग माना है। इन चारों में से ज्ञान दर्शन सूर्य के प्रताप और प्रकाश की तरह मुक्तावस्था में भी सदैव रहते हैं, क्योंकि ये दोनों आत्मा के निजी गुण हैं तथा चारित्र और तप की आवश्यकता मोक्ष प्राप्त करने तक ही रहती है। सर्वथा कर्मक्षय होने के बाद आत्मा शुद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अजरअमर, निरंजन, निर्विकार, अनन्तचतुष्टयसम्पन्न होकर निजस्वरूप में निमग्न होकर शाश्वत सुख में लीन रहता है। १ पयइ सहावो वत्तो, ठिईकालावधारणं । अणुभागो रसो णेओ, पएसो दलसंचओ ॥ --नवतत्त्वप्रकरण गा. ३७ २ 'कृत्स्नकर्मक्षयोमोक्षः ।' 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ।' --तत्त्वार्थ. अ. १०, सू. २, ३
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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