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________________ १०० | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका लेता है । वह सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार, अनन्त आत्म-सुख का भोक्ता बनता है। निर्जरा के दो प्रकार-कर्मों की यह निर्जरा दो प्रकार की होती हैसकाम-निर्जरा और अकामनिर्जरा । यहाँ काम शब्द उद्देश्य, आशय, इच्छा या अभिलाषा अर्थ में प्रयुक्त है। आत्मशुद्धि की इच्छा से, उच्च आशय से किये जाने वाले बाह्यान्तर तप, परीषहसहन, उपसर्ग-विजय, अथवा आत्म-स्पर्शी उत्कृष्ट एवं कठोर धर्मसाधना से कर्मों का जो क्षय होता है, वह सकामनिर्जरा है। निरुपायता से, अनिच्छा से, विवशतापूर्वक या अज्ञानपूर्वक कष्ट सहने या मूढ़तापूर्वक तप करने से जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा है। अथवा कर्मस्थिति का पारिपाक होने से फलभोग के अनन्तर कर्मों का स्वतः झड़ जाना भी अकामनिर्जरा है। हाँ, कर्मफलभोग के समय यदि शान्ति, समभाव और धैर्य रखे, आत्त ध्यान-रोद्रध्यान न करे तो नये कर्मों का बन्ध नहीं होता, अन्यथा पुराने कर्मों के क्षय होने के साथ-साथ नये अशुभ कर्म बन्ध जाते हैं। इन दोनों में सकामनिर्जरा ही प्रशस्त और उपादेय है। _ निर्जरा का उपाय-निर्जरा का प्रमुख उपाय तपश्चरण-शास्त्रोक्त विधिपूर्वक बाह्य और आभ्यन्तर तपस्या का आचरण करना है। तपस्या के छह बाह्य और छह आभ्यन्तर भेद बताए हैं। इनका विशेष विवेचन पहले किया जा चुका है। (८) बन्धतत्त्व आत्मा के साथ कर्मों का दूध और पानी की तरह एकमेक हो जाना, तादात्म्य सम्बन्ध हो जाना बन्ध है । बन्ध के कारण जीव का स्वरूप मलिन हो जाता है, जिसके कारण उसे संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। कर्मों को कहीं से लेने जाना नहीं पड़ता। इस प्रकार के (कर्म) पुद्गल द्रव्य समग्र लोक में ठूस-ठूस कर भरे हैं। जैनशास्त्रों में इन्हें 'कर्मवर्गणा' कहा गया है। ये कर्मवर्गणा के पुद्गल राग-द्वेष-मोहरूप स्निग्धता के कारण आत्मप्रदेशों के साथ चिपक जाते हैं, ओतप्रोत हो जाते हैं। कर्म के भेद-कर्म के मुख्य ८ भेद हैं-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शना १ तपसा निर्जरा च। --तत्त्वार्थसूत्र अ. ६, सू. ३ २. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते, स बन्धः। -तत्त्वार्थ. ८, २
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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