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________________ सम्यग्दर्शन-स्वरूप | ES (१) सम्यक्त्व संवर-अनादिकाल से जीव मिथ्यादर्शन से युक्त है, इसी कारण संसारचक्र में परिभ्रमण करता है। जब जीव को सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो जाती है तो वह पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानकर निजस्वरूप की ओर झुक जाता है। मिथ्यादर्शन के दूर हो जाने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाने से अज्ञान नष्ट हो जाता है। सम्यक्त्व के प्रभाव से जीव के अन्तःकरण में संसार से निवृत्तिभाव तथा विषयों से विरक्तिभाव आ जाता है। पदार्थों के यथार्थस्वरूप को जानकर वह मोक्षपद प्राप्ति के लिए उत्सुक हो जाता है। (२) विरति [व्रत] संवर-सम्यग्दर्शनयुक्त आत्मा पंचास्रव द्वारों को विरति से निरोध करने की चेष्टा करता है। वह यथाशक्ति देशविरतिरूप या सर्व विरतिरूप धर्म का अंगीकार कर लेता है, जिससे उसके नये कर्म आने के मार्ग रुक जाते हैं। __(३) अप्रमाद संवर-किसी व्रत, नियम, तप, जप, प्रत्याख्यान, संवर, सामायिक, पौषध आदि धर्माचरण करने में प्रमाद न करना अप्रमाद संवर है। क्योंकि प्रमाद भी संसार परिभ्रमण का मूल कारण है। अतः अप्रमत्तभाव से क्रिया-प्रवृत्ति करने से आस्रव-निरोध हो जाता है। (४) अकषाय संवर-क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों कषायों से बचना ही अकषाय-संवर है । जब चारों कषायों से जीव निवृत्त हो जाता है, तब उसे केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। (५) अयोग संवर-जिस समय केवलज्ञानी भगवान् आयुकर्म के शेष होने से तेरहवें गुणस्थान में होते हैं, तब वे मन-वचन-काया के योगों से युक्त होते हैं, किन्तु जब केवली भगवान् की आयु अन्तमुहूत्त प्रमाण शेष रहती है, तब वे चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट हो जाते हैं। फिर क्रमशः योगों का निरोध करके शीघ्र ही अयोगी अवस्था को प्राप्त होकर निर्वाणपद पा लेते हैं। आत्मा अयोगोभाव करके हो मोक्षारूढ़ हो सकता है, और अयोगीभाव प्राप्त होता है—योगों के पूर्णतया निरोध (संवर) से । यही अयोग संवर का अर्थ है। . (७) निर्जरातत्व आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बद्ध कर्मों का स्खलित होना निर्जरा है । निर्जरा में कर्मों का एकदेश से क्षय होता है, सर्वथा नहीं। परन्तु निर्जरा की क्रिया जब उत्कृष्टता को प्राप्त कर लेती है, तब आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित सर्वकर्मों का क्षय हो जाता है, और आत्मा अपने शुद्धस्वरूप को प्राप्त कर
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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