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८ | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
है ।' अर्थात् - जिन क्रियाओं से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध न हो सके, उन क्रियाओं को संवरतत्त्व कहते हैं । उदाहरणार्थ - कर्मरूपी जल आस्रवरूपी छिद्रों से जीवरूपी तालाब में भर जाता है, यह जानकर व्रत, प्रत्याख्यान रूपी डाट लगाकर उन आस्रव-छिद्रों को बन्द कर देना संवर है ।
संवर के २० भेद - [१] सम्यक्त्व, [२] विरति [३] अप्रमाद, [४] कषायत्याग, [ ५ ] योग- स्थिरता, [६] जीवों पर दया करना, [3] सत्य बोलना, [८] अदत्तादान - विरमण, [8] ब्रह्मचर्य पालन, [१०] ममत्वत्याग, [११-१५] पांचों इन्द्रियों को वश में करना, [१६-१८ ] मन-वचन-काय को वश में करना, [१९] भाण्डोपकरणों को यतनापूर्वक उठाना - रखना [२०] सूई, तृणादि छोटी-छोटी वस्तुएँ भी यतनापूर्वक उठाना - रखना । इन बीस कारणों से संवर होता है ।
संवर की सिद्धि-तत्त्वार्थ सूत्रकार ने तथा नवतत्त्व प्रकरण ग्रन्थ में संवर की सिद्धि के ५७ प्रकार बताए हैं। वे इस प्रकार हैं-- [१-५] पांच समिति, [ ६८ ] तीन गुप्ति, [ ६- १८ ] दशविध श्रमणधर्म, [१९ - ४० ] बाईस परीषहों पर विजय, [४१-५२ ] बारह अनुप्रेक्षाएँ [ भावनाएँ], [५३-५७] सामायिक आदि पांच चारित्र ।
संबर के इन ५७ भेदों का आचरण करने से नये कर्मों का आगमन रुकता है; और आस्रवनिरोध होने से धीरे-धीरे आत्मा कर्मों से सर्वथा रहित होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है ।
संवर के दो मुख्य प्रकार — द्रव्यसंवर और भावसंवर ये दो संवर के मुख्य प्रकार हैं । कर्मपुद्गलों के ग्रहण का छेदन या निरोध करना द्रव्यसंवर है, तथा संसारवृद्धि में कारणभूत क्रियाओं का त्याग करना अथवा आत्मा का शुद्धोपयोग एवं उससे युक्त समिति आदि भावसंवर है ।
संवर के पांच प्रकार - संवर मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत है, वह पुण्य और पाप (शुभोपयोग और अशुभोपयोग) दोनों आस्रवों से आत्मा को हटा कर धर्म - शुद्धोपयोग में लगाता है । इस दृष्टि से उसके ५ भेद मुख्यतया बताये गये हैं
१ आश्रव-निरोधः संवरः ।
२ (क) स गुप्ति समिति-धर्मानुप्रेक्षा - परीषहजय चारित्रः ।
-- तत्त्वार्थसूत्र अ. ६, सू. १
-- तत्त्वार्थ ०
(ख) समिई - गुत्ति - परिसह जइधम्मो भावणा-चरिताणि । पण ति दुवीस-दस-बारस - पंचभेएहिं सगवन्ना ।
० अ. ६, सू. २
--नवतत्त्व प्र. गा. २५