________________
सम्यग्दर्शन-स्वरूप | ६७
तालाब में अगर पानी आने का नाला होता है तो उसके द्वारा पानी आता रहता है, वह बन्द नहीं होता; इसी प्रकार जीवरूपी तालाब में कर्मरूपी नाले से जल का आना आस्रव है । जैसे-नौका में छिद्र के द्वारा पानी आता रहता है, उसी प्रकार आत्मा में मन-वचन-काया के योगों [प्रवृत्तियों के संक्रमण से और क्रोध-मान-माया-लोभरूप कषायों से कर्मों का आगमन होता रहता है।
शुभाधव और अशुभाब--मन-वचन-काया के योगों की प्रवृत्ति यदि प्रशस्त मात्र से हो तो शुभकर्मों का आगमन होता है, और अप्रशस्त भाव से हो तो अशुभ बमों का आगमन होता है । आत्मा में शुभकर्मों का आगमन करवाने वाला शुभास्रव-पुण्यास्रव है, और अशुभकर्मों का आगमन करवाने बाला पापास्रव---अशुभास्रव है ।
आस्रव के दो प्रकार - जैनशास्त्रों में आस्रव से निष्पन्न कर्मबन्ध के दो भेद बताए गए हैं-साम्परा यिक और ऐर्यापथिक । कषाययुक्त जीवों को कर्मों का जो बन्ध होता है, वह कर्म को स्थिति पैदा करने वाला साम्परायिक कर्मबन्ध होता है । उससे संसार [जन्म-मरण] की वृद्धि होती है और कषावरहित वीलगग जीवों को जो कर्मों का बन्ध होता है, वह ऐर्यापथिक है।
पिथिक वन्ध के आस्रव से कर्म अवश्य आते हैं, लेकिन प्रथम समय में वे जोत्र के साथ सम्बद्ध होते हैं, द्वितीय समय में हो छूट जाते हैं ।
आत्रत के २० द्वार [१] मिथ्यात्व, [२] अव्रत [पंचेन्द्रिय तथा मन को वश में न रखना, पटकाविक जीवों की हिंसा से विरत न होना], [३] पांच प्रमाद, [४] चार कपात्र, नौ नोकपाय, [५] योग [मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति], [६] प्राणातिपात, [७] मृषावाद, [८] अदत्तादान, [8] मैथुन, [१०] परिग्रह, [११-१५] पंचेन्द्रिय को अशुभकार्य में प्रवृत्त करना, [१६-१८] मनोवल, वचनबल और कायबल को अशुभकार्य में प्रवृत्त करना, [१९] वस्त्र-पात्रादि उपकरण को अयतना से ग्रहण करना-रखना, [२०] सुई, तृण आदि पदार्थ भी अयतना से लेना---रखना।
पच्चीस किराएं- कायिकी आदि पच्चीस क्रियाएँ भी आसव के तथा कर्मवन्ध के कारण हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष को इनसे बचने का यथासम्भव प्रयत्न करना चाहिए।
६) संवरतत्त्व जिन-जिन मार्गों से आस्रव आता हो, उनका निरोध करना, संवर