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________________ १६ | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका दम्भ करने से, और [१८] मिथ्यादर्शनशल्य-मिथ्यात्व से या असत्यमान्यता प्ररूपण से या पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ न जानने-मानने से । यह एक प्रकार का शल्य है। पाप के दो प्रकार - [१] पापानुबन्धी पाप -- जिस पाप को भोगते हुए नया पाप बंधता है, वह पापानबन्धी पाप है और [२] पुण्यानुबन्धी पापजिस पाप को भोगते हुए पुण्योपार्जन होता है, उसे पुण्यानुबन्धी पाप कहते हैं । जैसे-कसाई, मछुए आदि जीव पूर्वभव के पापों के कारण इस भव में दरिद्रता, रोग आदि अनेक दुःख भोग रहे हैं और इसी पाप-फल को भोगते हए अन्य नये-नये पापों का बन्ध कर रहे हैं, उनका यह पाप पापानबन्धी पाप है। इसके विपरीत जो जीव पूर्वभव के पापवशात् इस भव में दारिद्रय आदि दुःख भोगते हुए भी वे सत्संग आदि के कारण विवेकपूर्वक अनेक प्रकार का धर्मकृत्य करते हुए पुण्योपार्जन करते हैं। अतः उनका यह पाप पुण्यानुबन्धी पाप है। अठारह पापों का फलभोग-पूर्वोक्त अठारह पापस्थानों का फल ८२ प्रकार से भोगना पड़ता है-[१-५] पांच ज्ञानावरणीय, [६-१०] पांच अन्तराय, [११-१५] पांच प्रकार की निद्रा, [१६-१६] चार दर्शनावरणीय, [२०] असातावेदनीय, [२१] नीचगोत्र, [२२] मिथ्यात्वमोहनीय, [२३] स्थावरनाम, [२४] सूक्ष्मनाम, [२५] अपर्याप्तनाम, [२६] साधारणनाम, [२७] अस्थिरनाम [२८] अशुभनाम, [२६] दुर्भगनाम, [३०] दुःस्वरनाम, [४१] अनादेयनाम, [३२] अयशोकीर्तिनाम, [३३] नरकगति, [३४] नरकायु, [३५] नरकानपूर्वी, [३६-५१] अनन्तानुबन्धी आदि सोलहकषाय, [५२-६०] हास्यादि नौ नोकषाय [६१] तिर्यंचगति, [६२] तिर्यंचानुपूर्वी, [६३] एकेन्द्रियत्व, [६४] द्वीन्द्रियत्व [६५] श्रीन्द्रियत्व, (६६] चतुरिन्द्रियत्व, [६७] अशुभविहायोगति, [६८] उपघातनाम, [६९-७२] अशुभवर्णादि चार, (७३-७७) ऋषभनाराचादि पांच संहनन, [७८-८२] न्यग्रोधपरिमण्डल आदि पांच संस्थान । इन ८२ प्रकारों से जीव पाप का फल भोगता है।' पाप सर्वथा हेय है, वह आत्मा को कलुषित करता है। (५) आस्त्रवतत्त्व जिस क्रिया या प्रवृत्ति से जीव में कर्मों का स्राव-आगमन होता है, उसे आश्रव [आस्रव] कहते हैं। अतः आस्रव कर्मों का प्रवेश-द्वार है। जैसे १ नवतत्त्वप्रकरण गा. १८-१६ २ (क) 'कायवाङ मनःकर्मयोगः स आत्रवः ।। (ख) सकषायाकषाययोः साम्पराविकर्यापक्षयोः । --तत्त्वार्थ० अ. ६ सू. १,५
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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