________________
२ | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
इन सबके स्वरूप आदि का वर्णन आगे षट्द्रव्यों के प्रकरण में विस्तार से किया जाएगा ।
(३) पुण्यतत्त्व
बहुत से लोग कहते हैं- पुण्य-पाप जैसा कुछ नहीं है, यह जगत स्वाभाविक रूप से विचित्र है, अतः भला-बुरा होता रहता है । किन्तु श्रुति, युक्ति और अनुभूति से पुण्य-पाप सिद्ध होते हैं ।
श्रुति-धर्मशास्त्रों में पुण्य-पाप का स्पष्ट प्रतिपादन है । धर्मशास्त्र एकस्वर से पुण्य के उपार्जन और पाप के त्याग करने का उपदेश देते हैं । जगत का कोई भी प्रसिद्ध एवं आस्तिकवादी धर्म ऐसा नहीं है, जो पुण्य-पाप IT विवेक न करता हो ।
प्रत्यक्ष रूप से देखा जाय तो भी भले का फल भला और बुरे का फल बुरा दिखाई देता है, परन्तु भले का फल बुरा और बुरे का फल बुरा नहीं दीखता । आम बोने पर आम और नीम बोने पर नीम उत्पन्न होता है । परन्तु आम बोने से नीम या नीम बोने से आम नहीं पैदा होता । आमवृक्ष पर आम का फल ही पकता है, निम्बोली नहीं । तात्पर्य यह कि जगत् में जो विचित्रता दिखाई देती है या अच्छा-बुरा होता है उसके पोछे भी एक निश्चित नियम है, जिसे आध्यात्मिक क्षेत्र में पुण्य-पाप का नियम कहते हैं ।
अनुभूति - स्वानुभव से भी यह स्पष्ट है । कोई अच्छा काम करने पर मन में सुख, सन्तोष और आनन्द की प्रतीति होती है, जब कि बुरा काम करने पर मन में असन्तोष, दुःख, ग्लानि या क्लेश होता है । ये दोनों प्रकार के अनुभव स्पष्ट ही पुण्य-पाप की प्रतीति कराते हैं, क्योंकि पुण्य-पाप के वश ही मनुष्य सुख-दुःखानुभव करते हैं ।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पुण्य और पाप दोनों स्वतन्त्र तत्त्व हैं । अर्थात् — उनमें से प्रत्येक का फल पृथक्-पृथक् भोगना पड़ता है, न कि दोनों की जोड़ - बाकी हो जाती है । उदाहरणार्थ - एक व्यक्ति ने ६० प्रतिशत पुण्य किया और ४० प्रतिशत पाप किया हो तो ऐसा नहीं हो सकता ४० प्रतिशत पाप कम होने के बाद उसे २० प्रतिशत पुण्य का ही उपभोग करना पड़े । उसे ६० प्रतिशत पुण्य का फल भी प्राप्त होगा और ४० प्रतिशत पाप का भी फल मिलेगा ।
यह स्पष्टता इसलिए करनी आवश्यक है कि बहुत से लोग मन में ऐसा सोचते हैं और कह भी दिया करते हैं- “हम भले ही थोड़ा-बहुत पाप