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१०. | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
__संसारी जीवों के भेद अनेक प्रकार से किये जा सकते हैं। मुख्य दो भेद हैं-१. स्थावर और २. त्रस । दुःख दूर करने और सुख प्राप्त करने की गति--चेष्टा जिसमें न दिखाई दे, वह स्थावर और दिखाई दे, वह त्रस है।
स्थावर के पाँच भेद-१. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. तेजस्काय, ४. वायुकाय और ५. वनस्पतिकाय । पृथ्वी-मिट्टी ही जिनका शरीर है, वे पृथ्वीकाय । अप्-पानी ही जिनका शरीर है, वे अप्काय । तेजस--अग्नि ही जिनका शरीर है, वे तेजस्काय । वायु-हवा ही जिनका शरीर है, वे वायुकाय । और वनस्पति ही जिनका शरीर है, वे वनस्पतिकाय कहलाते हैं। इन पांचों प्रकार के जीवों के एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय होने से ये एकेन्द्रिय कहलाते हैं।
___इन पांच स्थावरों के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और बादर । सक्ष्म जीव सर्वलोक में व्याप्त हैं, परन्तु वे अति सूक्ष्म होने से चक्षुओं से अगोचर हैं । जबकि बादरपृथ्वीकाय आदि लोक के अमुक भाग में रहे हुए हैं और वे पृथ्वी आदि शरीररूप में प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं।
वायु केवल स्पर्शेन्द्रिय द्वारा जानी जाती है।
वनस्पतिकाय के दो भेद हैं-ताधारण और प्रत्येक । साधारण वनस्पति उसे कहते हैं, जहाँ अनन्त जीवों का एक शरीर हो, तथा प्रत्येक वनस्पति वह है, जिसके मूल, पत्त, बोज, छाल, लकड़ी, फल, फल आदि में प्रत्येक में पृथक्-यथक् स्वतंत्र एक जीव हो । साधारण वनस्पति निगोद कहलाती है । साधारण वनस्पति जीव एक ही शरीर में अनन्त रहते हुए भी परस्पर टकराते नहीं, न ही वे एक दूसरे से खण्डित होते हैं। प्रत्येक आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व रहता है।
घर्षण, छेदन आदि प्रहार जिस पृथ्वी पर पड़े न हों, या सूर्य या अग्नि का ताप, प्राणियों का संचार आदि भी जिसमें न हुआ हो, जिसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श न बदलें हो, वह पृथ्वी सचेतन (सचित्त) होती है, इसके विपरीत सर्य या अग्नि का प्रकाश, ताप पड़ा हो, प्राणियों का संचार आदि या अमुक पदार्थों का मिश्रण होने से जिसके वर्णादि में परिवर्तन हो गया हो, अर्थात्-जो शस्त्रपरिणत हो गए हों, वे पृथ्वी, जल, वनस्पति, वायु और अग्नि के जीव च्युत हो जाते हैं, फलतः वह पृथ्वी आदि के जीव निकल जाने से वह अचित्त (अचेतन) हो जाते हैं।
त्रस जीवों के भेद-प्रभेद-त्रस जीवों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, ये चार भेद हैं । जिनमें स्पर्शन और रसन ये दो इन्द्रियाँ हों,