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सम्यग्दर्शन-स्वरूप | ८६ जीवों की संख्या--इस लोक में जीवों की संख्या अनन्त है। वेदान्तदशन का कहना है--'इस जगत् में सिर्फ एक ही आत्मा---एक ही ब्रह्म व्याप्त है,' अनेक नहीं। यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। यदि संसार में एक ही ब्रह्म हो तो, सभी जीवों की प्रवृत्ति, सुख-दुःखानुभव की मात्रा, स्वभाव, वृत्ति आदि समान होनी चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं दिखाई देता है। सभी जीवों की वृत्ति-प्रवृत्ति पृथक्-पृथक है । सुख-दुःख का अनुभव भी सभी जीवों का समान मात्रा में नहीं होता। एक ही ब्रह्म सारे जगत् में व्याप्त हो तो सभी जीवों की उन्नति-अवनति एक साथ होनी चाहिए; परन्तु देखा जाता है कि एक जीव उन्नति के शिखर पर आरूढ़ है, जबकि दूसरा अवनति के गर्त में गिर रहा है । यदि एक ही ब्रह्म के ये विविध अंश हैं, तो आपत्ति यह होगी कि जब तक सर्व अंश मुक्त नहीं होगा, तब तक किसी भी जीव की मुक्ति नहीं होगी, और ऐसी दशा में किसी भी व्यक्ति के लिए मुक्ति के लिए साधना करने का कोई अर्थ न होगा। एक ही आत्मा हो तो गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, सज्जन-दुर्जन आदि भेद भी कैसे सम्भव हो सकेंगे ? __जीव के भेद-प्रभेद-जीव के मुख्य दो भेद हैं-सिद्ध (मुक्त) और संसारो। जो जीव कृतकर्मों का फल भोगने के लिए संसरण-विविध गतियों-योनियों में जन्ममरण-परिभ्रमण करते हैं, वे संसारी हैं । जो जीव सर्वकर्मों से मुक्त हो कर सिद्धशिला पर विराजमान हैं, वे मुक्त कहलाते हैं। मुक्त जीव अनन्तज्ञान दर्शन-सुख-वीर्य से सम्पन्न हैं।
संसारी जीवों का एक सर्वमान्य लक्षण यह भी हो सकता है कि जिनमें आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा--इन चार संज्ञाओं का अस्तित्व हो, वे सभी संसारी जीव हैं।
सभी जीवों में, यहाँ तक कि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारसंज्ञा पाई जाती है। इच्छानुसार आहारादि पदार्थ मिलने, न मिलने पर उसकी वद्धिहानि होती है। जैव-वैज्ञानिकों ने अपने नवीन आविष्कारों से यंत्रों द्वारा वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारादि संज्ञा सिद्ध कर दी है। भयसंज्ञा का अस्तित्व भी व्यक्त-अव्यक्त रूप में सभी प्राणियों में पाया जाता है। संसारी आत्माएँ मोहनीय कर्म के उदय से मैथुनसंज्ञा वाले होते ही हैं। ममता-मूर्छारूप परिग्रहसंज्ञा भी एक या दूसरे प्रकार से सभी प्राणियों में पाई जाती है। १ 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म'