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________________ ८८ | जैन तत्त्वकलिका पंचम कलिका गुरुत्व नहीं होता, अतः जीव की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होने के कारण वह समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन करके एक समय में लोक के अग्रभाग -- सिद्धशिला पर पहुँच जाता है । कर्त्ता और भोक्ता - चेतनागुण के कारण सांसारिक जीव सुख-दुःख का वेदन करता है, इसी से शुभाशुभ कर्मों का बन्धन प्राप्त करता है । अतः वह कर्मों का कर्त्ता है और इन कर्मों के शुभाशुभ फलों को वह भोगता है, इसलिए कर्मों का भोक्ता भी है । यहाँ शंका हो सकती है कि जीव को कर्मों का कर्ता और भोक्ता बताने पर सिद्ध जीवों में भी कर्तृत्व-भोक्तत्व का प्रसंग आएगा । इस शंका का समाधान इस प्रकार है-व्यवहारनय की दृष्टि से सांसारिक जीव ही शुभाशुभ कर्मों का कर्त्ता और उनके शुभाशुभ फलों का स्वयं भोक्ता है, किन्तु सिद्ध जीव जो पूर्ण रूप से कर्मरहित हो गये हैं, वह स्वस्वभाव-रमणकर्ता हैं, तथा आत्मा में उत्पन्न सुखरूपी अमृत के भोक्ता हैं । कई लोग जीव के कर्मों का प्रेरक तथा कर्मफलदाता ईश्वर को मानते हैं, किन्तु यह कथन युक्तिविरुद्ध है । जो ईश्वर स्वभाव से शुद्ध है, वह अशुद्ध कर्मों का प्रेरक कैसे हो सकता है ? यदि सुख-दुःख ईश्वर की प्रेरणा से ही जीवों को प्राप्त होते हों तो ईश्वर सभी जीवों को एकान्त सुख ही क्यों नहीं दे देता, दुःख क्यों देता है ? यदि कहें कि वह कर्मानुसार जीवों को सुख या दुःख देता है, तब तो कर्मों को ही सीधे फलदाता क्यों नहीं मान लेते ? ऐसी स्थिति में कर्म प्रेरक ईश्वर को न मानकर जोब को ही स्वयं कर्मकर्ता मानना पड़ेगा । संसर्ता और परिनिर्वाता - जैनशास्त्रों का कथन है कि आत्मा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के कारण कर्मबन्धन में फँसकर नाना गतियों - योनियों में – जन्ममरण रूप संसार में परिभ्रमण करता है । इसलिए उसे संर्त्ता कहते हैं, किन्तु यदि जीव अपनी आत्मशक्तियों का विकास करे तो सभी कर्मों से रहित होकर जन्ममरण-रूप संसार से मुक्त -- परिनिवृत्त हो सकता है और अपने में अन्तर्निहित किन्तु सुषुप्त अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र (सुख) और अनन्तवीर्य के भण्डार को प्रकट कर सकता है | इसी कारण जीव को परिनिर्वाता भी कहा है । ऐसा होने पर सामान्य आत्मा भी परमात्मा बन सकता है, यह जैन सिद्धान्तों का स्पष्ट उद्घोष है । 2 १ यः कर्त्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्सापरिनिर्वातास ह्यात्मा नान्यलक्षणः ||
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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