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सम्यग्दर्शन-स्वरूप | ८७
करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि अधिकांश शरीर-वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि ज्ञानवाही तन्तु मस्तिष्क तक सूचना पहुँचाते हैं और तब मस्तिष्क सुखदुःख वा संवेदन करने के साथ-साथ प्रतिक्रिया करता है। यदि किसी ज्ञानवाही नाड़ी अथवा तन्तु को किसी औषधि से शून्य कर दिया जाय तो उसकी संवेदना नहीं होती । अतः आत्मा मस्तिष्क में स्थित है।
किन्तु वैज्ञानिकों का यह मत भ्रामक है, ज्ञानवाही तन्तु अथवा नाड़ी के संवेदनशून्य हो जाने से चेतनाहीनता या जीव का अभाव सिद्ध नहीं होता । सिर्फ इतनो सी बात है कि जीव की चेतना अव्यक्त हो जाती है। फिर औषधि का प्रभाव समाप्त होते ही जीव की चेतना ज्यों की त्यों व्यक्त हो जाती है।
अतः युक्ति और अनुभव से यह सिद्ध होता है कि जीव देह से अधिक परिमाण वाला या अल्प परिमाण वाला भी नहीं, किन्तु देह-परिमाण वाला है। हाँ केवली समुद्घात के समय जीव के आत्मप्रदेश समग्र लोकव्यापी हो जाते हैं। - जीव (आत्मा) देहपरिमाण है, ऐसी मान्यता कई उपनिषदों में भी मिलती है। कोषोतकी उपनिषद् में कहा है-"जैसे छुरा अपने म्यान में
और अग्नि अपने कुण्ड में व्याप्त है, वैसे ही आत्मा शरीर में नख से शिखा तक व्याप्त है।” तैत्तिरीय उपनिषद् में आत्मा को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय बताया है जो देहपरिमाण मानने पर ही सम्भव हो सकता है।
जरूपी और अमूर्तिक-निश्चयनय की दृष्टि से वह इन्द्रियों से अगोचर, शुद्धबुद्धरूप तथा रूप-रस-गन्ध-स्पर्शरहित, एक स्वभाव का धारक है; तथापि व्यवहारनय की दृष्टि से वह कर्मों से बद्ध होने के कारण मूर्तिक कर्मों के अधीन होने से शरीराश्रित की अपेक्षा से वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शयुक्त है।
क्रियारहित-यद्यपि निश्चयनय की दृष्टि से जीव क्रियारहित है, तथापि शरीराश्रित होने से वह सक्रिय है, मन, वचन और काया से व्यापार (प्रवृत्ति) करता है, तथा व्यवहारनय से कर्मों के कारण ऊर्ध्व, अधः या तिर्यक्, चाहे जिस दिशा में गति कर सकता है।
ऊर्ध्वगतिशील-निश्चयनय से जीव ऊर्ध्वगमनशील है, क्योंकि उसमें
१ समुद्घात् एक विशेष क्रिया है, जिसका वर्गन अरिहंतदेव वर्णन में किया जा चुका है।
-संपादक