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८६ | जम तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
जैनदर्शन इस विषय में यह समाधान देता है कि जीव जिस प्रकार अखण्ड और अक्रिय है, उसी प्रकार प्रकाश की तरह संकोच-विकासशील भी है, तथा देह से सम्बन्ध होने के कारण, क्रिया भी करता है। इसीलिए बड़े या छोटे कमरे में प्रकाश की तरह बड़े या छोटे शरीर में उसकी अवगाहना के अनुसार व्याप्त होकर रहता है। हाथी के शरीर में रहा हुआ जीव हाथी का शरीर छोड़कर जब चींटी का शरीर धारण करता है तब वह संकुचित हो जाता है, और जब चींटी का शरीर छोड़कर वह हाथी का शरीर धारण करता है, तब वह विस्तृत हो जाता है । रबर को खींचकर लम्बा किया जाए तो विशेष सीमा तक ही लम्बा हो सकता है, उससे अधिक लम्बा करने पर वह टूट जाता है, लेकिन जीव चाहे जितना लम्बा-चौड़ा फैलने पर भी नहीं टूटता, खण्डित नहीं होता। अतः संकोच-विस्तार होने तथा खण्ड होने का अन्तर स्पष्ट समझ लेना चाहिए।
इस बात को एक और दष्टान्त के समझ लीजिए, मानवशिशु, अथवा पशु-शिशु जब जन्म लेता है तो उसका आकार बहुत छोटा होता है, बाद में बढ़ता जाता है। शरीर-वृद्धि के साथ-साथ ही जीव अपने प्रसरण गुण के कारण देहप्रमाण होता जाता है।
देहपरिमाण-जीव देहपरिमाण है, अर्थात्-जीव सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहता है, उससे बाहर व्याप्त होकर नहीं रहता । कई दार्शनिक जीव को देह से बाहर व्याप्त-अर्थात्-विश्व (ब्रह्माण्ड) व्यापी मानते हैं । परन्तु ऐसा नहीं है। यदि जीव को विश्वव्यापी माना जाए तो इतने जीवों के अवगाहन के लिए कई लोककाश चाहिए, जबकि लोककाश तो एक ही है । इस स्थिति में तो उसका अमुक शरीर के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं रह सकेगा।
कई दार्शनिक (औपनिषदिक) कहते हैं-आत्मा (जीव) चावल या जौ के दाने के समान या रीठे जितना, अंगठे जितना, अथवा एक बालिश्त (बीता) भर है आदि । अर्थात-जीव देह से सक्ष्म परिमाण वाला (छोटा) है। तब प्रतिप्रश्न उठता है कि देह से सक्ष्म जीव रहता कहां है ? ऐसा कहें कि वह हृदय में या मस्तिष्क में रहता है, तब शंका होती है कि शरीर के बाकी के भाग में सुख-दुःख का संवेदन क्यों होता है ? हाथ या पैर में सई चुभाने पर दुःख का और चन्दनादि का लेप हाथ-पैर में करने पर सुख का संवेदन क्यों होता है ? .
आज के वैज्ञानिक अनुसंधानों से ये दार्शनिक अपने मत की पुष्टि