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सम्यग्दर्शन - स्वरूप | ८५
नहीं कर सकते, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे भिगो नहीं सकता, वायु उसे सुखा नहीं सकता, चाहे जैसे शक्तिशाली यंत्रों या प्रचण्ड तीव्र रासायनिक प्रयोगों से जीव का विनाश नहीं हो सकता । देह अवश्य कटता, गलता, जलता, सूखता या नष्ट होता है, आत्मा नहीं ।
जीव को 'अक्षय' इस कारण कहा गया है कि उसमें कभी भी कुछ कमी नहीं होती । अनन्त भूतकाल में वह जितना था, उतना ही आज है, और जितना आज है उतना ही अनन्त भविष्यकाल में भी रहेगा । यदि जीव में जरा भी क्षीणता (कमी) होगी तो एक समय ऐसा आ सकता है, जब कि वह सर्वथा ( पूर्णरूप से) क्षीण हो जाए। लेकिन जीव के अक्षय होने से ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न नहीं होती है, शरीर में अवश्य हानि-वृद्धि होती है, पर वह जीव की नहीं, शरीर को है -- चैतन्याश्रित शरीर की है ।
जीव को 'ध्रुव' कहने का आशय भी यही है कि वह द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से द्रव्य के रूप में स्थायी रहता है, पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से वह कर्मवश नाना पर्यायें धारण करता है । कभी सिंह बना तो कभी हाथी, कभी मनुष्य बना तो कभी देव ।
जीव को 'मिथ' कहने का अभिप्राय यह है कि द्रव्य की अपेक्षा से उसका कभी अन्त नहीं होता, केवल पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से उसका देहापेक्षया रूपान्तर होता रहता है, किन्तु यह परिवर्तन वस्तुतः जीव ( आत्मा ) का नहीं, जीव के आश्रित शरीर का है ।
जीव 'असंख्य प्रदेशात्मक' है । प्रदेश का अर्थ है -- सूक्ष्मतम भाग | उपमा की भाषा में कहें तो जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं । वे सब प्रदेश शृंखला (सांकल) की कड़ियों की तरह परस्पर एक दूसरे में फँसे हुए हैं, इस कारण उनका एकत्व बना रहता है । आत्मा के खण्ड (टुकड़े) कदापि नहीं होते, वह सदैव अखण्ड बना रहता है ।
संकोच - विकासशील - यद्यपि निश्चयदृष्टि से आत्मा (जीव ) अक्रिय ( क्रियारहित ) है, किन्तु व्यवहारदृष्टि से वह शरीराश्रित होने से विविध क्रियाएँ मन-वचन-काया से करता है । '
शंका उठाई जा सकती है कि हाथी के शरीर में रहा हुआ आत्मा (जीव ) हाथी का शरीर छोड़कर जब चींटी का शरीर धारण करता है, तब तो उसका खण्ड होता होगा, या वह क्रिया भी करता होगा ?
१ जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोढगई || -- बृहद्रव्यसग्रह अधि. १, गा. २