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सम्यग्दर्शन - स्वरूप | ८३
अग्नि, वायु और वनस्पति में भी सुख-दुःख का संवेदन होता है, अतः इनमें भी जीव हैं । प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु ने वनस्पति पर प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया कि वनस्पति में जीव है, उन्हें भी सुख-दुःख का संवेदन होता है ।"
उसी प्रकार कृषि वैज्ञानिक भी पृथ्वी में जीव मानते हैं और जीव सहित पृथ्वी को जीवित भूमि (Living Soil) कहते हैं । एक बूँद साफ और स्वच्छ जल में भी लाखों सूक्ष्म जीव देखे हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति, अग्नि-इन पांचों में भी जीव है ।
सूखी, लकड़ी, काँच, कागज आदि में जीव नहीं है, क्योंकि इन्हें सुखदुःख का संवेदन नहीं होता, उनमें कोई बोध - व्यापार या उपयोग नहीं होता है ।
जीव को प्रांणी भी कहते हैं, क्योंकि वह प्राण धारण करता है । प्राण दो प्रकार का है— द्रव्यप्राण और भाव प्राण । द्रव्यप्राण के १० भेद हैंपाँच इन्द्रियाँ, तीन बल ( मनोबल, वचनबल और कायबल) श्वासोच्छ्वास और आयुष्य ।
किसी भी निकृष्ट अवस्था में जीव के इनमें से चार प्राण अवश्य होते हैं । जीव की अवस्था ज्यों-ज्यों विकसित होती है, त्यों-त्यों उसमें प्राणों की संख्या में वृद्धि होती है और अन्त में वह दसों प्राणों को धारण करने वाला होता है ।
भावप्राण चार होते हैं— ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, ये प्रत्येक जीव अवश्य होते हैं । निकृष्ट अवस्था में वे अव्यक्त और सामान्य मनुष्यों द्वारा अज्ञात होते हैं, परन्तु जीव की क्रमशः उन्नत अवस्था में वे व्यक्त होते जाते हैं और सामान्य मनुष्यों द्वारा भी ज्ञात होते हैं ।
जो जीव सर्वकर्मों का क्षय कर देता है, उसकी देहधारण क्रिया का अन्त होने पर वह द्रव्यप्राणों को धारण नहीं करता । किन्तु भावप्राण तो उस समय भी अवश्य होते हैं । अतः प्राणधारण जीव की विशेषता है । जीव का स्वरूप -- निश्चयनय की दृष्टि से भगवती सूत्र में कहा गया है
१ जैसे कि स्मृति में भी कहा हैअन्तःप्रज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ।
शारीरजैः कर्मदोषैर्यान्ति स्थावरतां नरः ॥