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८२ | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
पाया जाता; प्रत्युत विशालकाय लम्बे-चौड़े शरीर वाले प्राणियों में ज्ञान कम होता है । हाथी, ऊँट और बैल की अपेक्षा मनुष्य का शरीर छोटा होते हुए भी उसमें ज्ञान अधिक पाया जाता है । मनुष्यों में भी मोटे-ताजे दिखाई देने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा दुर्बल और कम लम्बे दिखाई देने वाले साधु-सन्तों और विद्वानों में अधिक ज्ञान होता है । अतः चेतना शरीर का लक्षण नहीं माना जा सकता, अपितु शरीर से भिन्न जीव या आत्मा का ही लक्षण है ।
उपयोग शब्द जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द है । उसका अर्थ हैज्ञान का स्फुरण, बोध-व्यापार या जानने की प्रवृत्ति । उपयोग दो प्रकार का होता है - निराकार और साकार । वस्तु का सामान्य बोध होना निराकार उपयोग है, जबकि विशेष रूप से बोध होना साकार उपयोग है । इन दोनों को क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहते हैं । इनमें प्रधानता ज्ञान की ही है । जिज्ञासा हो सकती है कि यदि उपयोग ही जीव का लक्षण हो तो निगोद जैसी निम्नतम एवं सुषुप्त चेतना वाली अवस्था में क्या उपयोग होता है ? इसका समाधान यह है कि निगोद जैसी निम्नतम अवस्था में भी जीव को अक्षर के अनन्तवें भाग जितना उपयोग अवश्य होता है । यदि इतना भी उपयोग न हो तो जीव और अजीव में या चेतन और जड़ में कोई भी अन्तर नहीं रहेगा। हाँ, इतना अवश्य है कि उपयोग तो प्रत्येक जीव में होता है, किन्तु वह उसकी अवस्था या शक्ति के विकास के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है, अर्थात् — उसमें तारतम्य बहुत होता हैं । निगोद के जीवों का उपयोग अत्यन्त मन्द होता है । उनसे विकसित चेतना वाले जीवों का उपयोग उत्तरोत्तर अधिकाधिक होता है । सबसे अधिक और श्रेष्ठतम उपयोग केवलज्ञानी का होता है । उपयोग की इस न्यूनाधिकता का कारण जीव के साथ लगा हुआ कर्म का आवरण है । वह आवरण जितना अधिक गाढ़ा होता है, उतना ही उपयोग कम होता है, और आवरण जितना अधिक शिथिल या सूक्ष्म होता है, उतना ही उपयोग अधिक होता है । निगोद के जीवों पर कर्म का आवरण बहुत ही गाढ़ होता है, अतः उनका उपयोग भी अतिमन्द होता है, और केवलज्ञानी के ज्ञानावरणीयादि कर्म का आवरण बिलकुल भी नहीं होता, अतः उनका उपयोग परिपूर्ण, सर्वश्रेष्ठ होता है ।
जीव उपयोगवान् होता है, इसी से उसे सुख-दुःख का संवेदन होता है, जो यह सूचित करता है कि गाय, भैंस, हाथी, घोड़े, बन्दर, मगरमच्छ, मत्स्य, साँप, बिच्छू, कनखजूरे, कीड़े आदि जन्तुओं में जीव हैं । पृथ्वी, जल