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सम्यग्दर्शन- स्वरूप | ८१
तत्वों का स्वरूप क्या है ? अतः इन तत्वों का स्वरूप क्रमशः संक्षेप में बताते हैं ।
(१) जीवतत्व
जीव का लक्षण : उपयोग, चेतना, प्राणधारण-- जीव का व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थ किया गया है, जो जीता है, प्राणधारण करता है, वह जीव है । " सर्वसाधारण लोगों की दृष्टि से जीव का यह लक्षण ठीक है; क्योंकि जब तक प्राणी के शरीर में जीव रहता है, तब तक मन, वचन, शरीर, इन्द्रिय, पुण्य-पाप, शुभाशुभ आदि का व्यापार चलता रहता है, जिस समय ata शरीर को छोड़ देता है, उसी समय से जीवन की समस्त क्रियाएँ अपनेआप बन्द हो जाती हैं ।
निश्चयनय की दृष्टि से जीव निश्चय भाव-प्राण (ज्ञान, दर्शन, सुख, बोर्य) से जीता है, और व्यवहारनय की दृष्टि से कर्मवश अशुद्ध द्रव्य भाव- प्राण (५ इन्द्रिय, ३ वल, १ आयु और १ श्वासोश्वास ) इन दस प्राणों से जीता है ।
किन्तु जीव का यह अर्थ संसारी जीवों में ही घटित होता है, सिद्ध जीवों में नहीं । अतः जैनाचार्यों ने जीव का लक्षण किया- 'चेतना लक्षणो जीवः' अर्थात् -- जिसमें चेतना ( चैतन्य अथवा चेतन) हो, घह जीव है । यह जीव का मुख्य लक्षण या गुण है, जो अजोव में नहीं पाया जाता । जीव ज्ञान दर्शन का धारक होने से 'चेतन' कहलाता है। चेतनगुण के कारण ही जीव सुख-दुःख का संवेदन करता है । इसीलिए जीव का स्पष्ट लक्षण किया गया- 'उपयोगो लक्षणम्' अर्थात् - जीव का लक्षण उपयोग है ।" यह लक्षण संसारस्य और सिद्ध दोनों प्रकार के जीवों में घटित होता है ।
कुछ लोगों का कहना है कि चेतना को जीव का लक्षण मानने की अपेक्षा शरीर का लक्षण माना जाय तो क्या आपत्ति है ? परन्तु उनका यह कथन यथार्थं नहीं है । यदि चेतना को शरीर का लक्षण माना जाए तो मरणावस्था में जीव के शरीर में से निकल जाने के बाद भी शरीर चेतनायुक्त रहना चाहिए, किन्तु मरणावस्था में वह चेतनारहित हो जाता है । इसके अतिरिक्त चेतना शरीर का लक्षण हो तो बड़े या मोटे शरीर में अधिक चेतना और अधिक ज्ञान होना चाहिए तथा दुबले-पतले शरीर में कम चेतना होनी चाहिए तथा ज्ञान की मात्रा भी कम होनी चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं
१ जीवति प्राणान् धारयतीति जीवः ।
२ (क) 'जीवो उवओगलक्खणो'
(ख) तस्वार्थसूत्र अ. ३ सू. ८