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८० | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
उसके लिए जगत् के जो मूलभूत तत्त्व बताए हैं, उनका ज्ञान और उन पर श्रद्धान भी करना आवश्यक है ।" जिसे इन तत्त्वों का ज्ञान नहीं या श्रद्धा भी नहीं, वह मोक्ष साधक क्रिया भलीभाँति नहीं कर सकता ।
इसके लिए जैन दार्शनिकों ने रोगी का दृष्टान्त दिया है
एक रोगी है । वह यह जानता है कि मुझे कौन-सा रोग हुआ है ? और किन उपायों से मिट सकता है ? परन्तु रोग मिटाने के लिए वह कोई उपाय या उपचार नहीं करता; तो उसका रोग नहीं मिट सकता। इसी प्रकार एक दूसरा रोगी है, उसे रोग हुआ है, इसलिए वह अनेक प्रकार के उपचार रोग निवारणार्थ करता रहता है, लेकिन रोग कौन-सा है ? उसका स्वरूप कौन-सा है ? वह क्यों बढ़ता है ? किन उपायों से घट सकता है या मिट सकता है ? इत्यादि कुछ नहीं जानता । बताइए, ऐसे रोगी का रोग कैसे मिट सकता ? जैसे रोग से मुक्त होने के लिए रोग का निदान, रोगनिवारणोपायज्ञान एवं चिकित्सा तीनों आवश्यक है, वैसे ही भवभ्रमणरूप रोग से मुक्ति के लिए ज्ञान, दर्शन, (श्रद्धा) और क्रिया; तीनों आवश्यक हैं । इसी कारण नौ तत्त्वों में ज्ञ ेय, हेय और उपादेय तीनों प्रकार के तत्त्वों को स्थान दिया गया है ।
नौ तत्त्वों में जीव और अजीव, ये दो ज्ञयतत्त्व हैं, जिनसे समस्त लोक, विश्व या जगत् का ज्ञान हो सकता है । पाप, आस्रव और बन्ध, तीनों हेयतत्त्व है । मनुष्य को क्या छोड़ना चाहिए ? अथवा क्या नहीं करना चाहिए ?, यह इन तीन तत्त्वों से जाना जा सकता है । संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये तीनों उपादेय तत्त्व हैं । इनसे यह जाना जा सकता है कि मनुष्य को क्या ग्रहण करना चाहिए ? या कौन-सा कार्य करना चाहिए, पुण्य, वैसे तो सोने की बेड़ी के समान होने से हेय है, किन्तु आत्मगुणों के विकास की साधना में सहायक होने से कथञ्चित् उपादेय समझना चाहिए ।
नौ तत्त्वों का स्वरूप
जीव- अजीव आदि ७ या तत्त्वों पर यथार्थ ज्ञानयुक्त श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जीव आदि
१ इहमेगे उ मन्नंति अपच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चए || ता ता बंध - मोक्खपइण्णिणो ।
वायावीरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥
-- उत्तराध्ययन अ. ६, गा. ८-६