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________________ ३० | प्रस्तावना मन में था, उपर्युक्त शब्दों से यह स्पप्ट है। आचार्यप्रवर ने प्रस्तुत ग्रन्थ के रूप में जैन जगत् को, भारतीय विद्या के अध्येतृवृन्दकों, तत्व-जिज्ञासुओं को एक अमूल्य सारस्वत उपहार भेंट किया है। परमपूज्य आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज जैन जगत् के परम ज्योतिर्मय भास्वान् थे, जैन आगम एवं दर्शन के वस्तुतः महान् रत्नाकर थे, परम उत्कृष्ट साधक थे । उनका व्यक्तित्व पवित्रता, सौम्यता एवं सरलता का अनुपम निदर्शन था। वे साधना की दीप्ति से देदीप्यमान थे । मैं चार-पाँच दशाब्द पूर्व की स्मृतियों में जाता है तो मुझे वि. सं. १९६० में अजमेर (राजस्थान) में समायोजित अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी साधु सम्मेलन की याद आती है । प्रायः देशभर के स्थानकवासी सन्त, जो पद यात्रा करने में सक्षम थे, सम्मेलन में पधारे थे। मैं भी अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता स्व. श्री हजारीमलजी म. सा. के साथ वहाँ उपस्थित हुआ था। तब मुझ आदरास्पद आचार्यवर श्री आत्मारामजी महाराज के दर्शन तथा सान्निध्य प्राप्त करने का सौभाग्य मिला । उनके व्यक्तित्व की विराट्ता, ज्ञान की गरिमा और उनके निर्मल, शान्त एवं सौम्य जीवन से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ और यह सोचकर अपने को गौरवान्वित भी माना कि हमारी स्थानकवासी श्रमण-परम्परा में ऐसे महान् श्रुतोपासक, ज्ञानयोगी विद्यमान हैं । सचमुच वे मुझे ज्ञान के एक दिव्य ज्योति-पुज प्रतीत हुए। विक्रम सं० २००६ में सादड़ी (राजस्थान) में हुए अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी साधु सम्मेलन में सर्वसम्मत रूप में समग्र स्थानकवासी श्रमण . सम्प्रदायों का श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के रूप में एकीकरण हुआ। एकीकृत श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य में रूप के परमपूज्य श्री आत्मारामजी महाराज का मनोनयन कर समस्त साधु-समाज ने अपने को सौभग्यशाली माना । दैहिक अस्वस्थता के कारण यद्यपि वे पद-यात्राएँ करने में सक्षम नहीं थे, पर लुधियाना (पंजाब) स्थिरवास में विराजित रहते हुए भी अपने विचक्षण शासन-कौशल और सूझ-बूझ से श्रमण-संघ का सुन्दर एवं समीचीन रूप में संचालन करते रहे । वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य के रूप में उनकी सेवाएँ युग-युग तक आदर तथा श्रद्धा के साथ स्मरणीय रहेंगी। आचार्यवर के हृदय में समग्र साधु-साध्वी समाज के प्रति आध्यात्मिक स्नेह और वात्सल्य का अशाह सागर लहराता था। एक प्रसंग का मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा-कुछ वर्ष हुए, हमारी अन्तेवासिनी परमविदुषी साध्वी श्री उमरावकुवरजी "अर्चना" ने काश्मीर की पदयात्रा की थी। यात्राक्रम के बीच मार्ग में उन्होंने आचार्यवर के सानिध्य-लाभ तथा उनसे विद्यालाभ की भावना से लुधियाना में आचार्यदेव की छत्रछाया में अपना चातुर्मासिक प्रवास किया। आचार्यवर ने उन्हें विद्या-लाभ देते हुए उनके प्रति, उनकी सहवर्तिनी साध्वियों के प्रति जो असीम अनुग्रह, आध्यात्मिक वात्सल्य तथा औदार्य-भाव दिखाया, साध्वीजी, अब भी, जब कभी वह चर्चा
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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