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प्रस्तावना | २६
मनीषियों ने जैन तत्त्वज्ञान को संस्कृत में तार्किक पद्धति से निरूपित किया था । फलतः सन्मतितर्कप्रकरण, द्वादशारनयचक्र, प्रमाण - नयतत्त्वालोक, स्याद्वाद-मंजरी, स्याद्वाद - रत्नाकर, रत्नाकरावतारिका, अष्टशती, अष्टसहस्री, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रभृति अनेक ग्रन्थों की रचनाएँ हुई, जिनका प्रमाणशास्त्रीय साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
जैन तत्त्वज्ञान की वैज्ञानिकता, अन्तःस्पर्शिता तथा सूक्ष्मग्राहिता का ही यह परिणाम था कि समय-समय पर बड़े-बड़े विद्वान इससे प्रभावित हुए तथा इसमें आस्थावान् एवं समर्पित हुए । दार्शनिक साहित्य के अतिरिक्त और भी अनेक विधाओं में जैन तत्त्वज्ञान विकसित हुआ, अनेक भाषाओं में उस पर रचनाएँ हुई। जैन तत्त्वदर्शन एवं वाङ् मय की मौलिकता, गम्भीरता आदि से अनेक प्राच्य विद्यानुरागी पाश्चात्य विद्वान भी प्रभावित हुए । डॉ. हर्मन जैकोबी, प्रो. वेवर, प्रभृति अनेक विद्वानों ने इस दिशा में अपनी-अपनी दृष्टि से गहन अध्ययनपूर्ण साहित्यिक कार्य भी किया । कार्य की आलोच्यता अनालोच्यता पर न जाकर मेरे कहने का आशय मात्र इतना ही है कि जैन संस्कृति, चिन्तनधारा तथा वाङमय द्वारा वे बहुत आकृष्ट हुए ।
प्रस्तुत ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार जैन तत्वज्ञान, आचार पद्धति एवं साधना पर, जो अध्यात्म जगत् की अप्रतिम गौरवमय विरासत है, सर्वांगीण रूप में प्रकाश डालने के लक्ष्य से प्रातः स्मरणीय, जैनागम रत्नाकर, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रथम आचार्यसम्राट परमपूज्य स्व. श्री आत्मारामजी महाराज ने लगभग चार दशाब्द पूर्व जैन तत्वकलिका संज्ञक प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की । जैन दर्शन पर सम्यक् रूप में प्रकाश डालने की से यह ग्रन्थ कितना महत्वपूर्ण तथा उपयोगी समझा गया, यह इसके प्रथम संस्करण के पुरोवचन-लेखक देश के तत्कालीन प्रकाण्ड विद्वान्, ओरिएन्टल कॉलेज, लाहौर के प्राफेसर कवितार्किक पं. नृसिंहदेव शास्त्री दर्शनाचार्य के शब्दों से सुप्रकटित है । (देखिए पुरोवचन )
इस ग्रन्थ की रचना के पीछे स्व. आचार्यदेव का अभिप्रेत था, जैन तत्वज्ञान अपने मूल स्वरूप में उपस्थापित किया जा सके । उन्होंने प्रस्तावना में इस ओर संकेत करते हुए लिखा है
'मेरे अन्तःकरण में चिरकाल से यह विचार विद्यमान था कि एक ग्रन्थ इस प्रकार से लिखा जाय, जो परस्पर साम्प्रदायिक विरोध से सर्वथा विमुक्त हो और उसमें केवल जैन तत्वों का ही जनता को दिग्दर्शन कराया जाय, जिससे जैनेतर लोगों को भी जैन तत्त्वों का भली भाँति बोध हो जाय ।
इस उद्देश्य को ही मुख्य रखकर इस ग्रन्थ की रचना की गई है । जहाँ तक हो सका है, इस विषय की पूर्ति करने में विशेष चेष्टा की गई है ।"
सद्ज्ञान के व्यापक प्रसार का कितना उदात्त तथा पवित्रभाव आचार्यवर के