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________________ २८ | प्रस्तावना जैन परम्परा की अनेक विशेषताओं में एक विशेषता यह हैं-वह आभिजात्यवाद या विशिष्ट वर्गवाद पर नहीं टिकी है। वह सर्वथा लोकजनीन है । जैसे वर्ग-विशेष, वर्ण-विशेष, जाति-विशेष आदि के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है, उसकी प्रकार, भाषा, निरूपण-पद्धति आदि में भी कभी कोई आग्रह नहीं रहा । तीर्थंकर जन-जन द्वारा बोली जाती, समझी जाती भाषा में उपदेश करते हैं। भगवान् महावीर जिस युग में हुए, जहाँ हुए, उस भूभाग की भाषा अद्धं मागधी प्राकृत थी। उसी में उन्होंने धर्म-देशना दी। समवायांग सूत्र में भगवान् द्वारा अर्द्ध मगधी भाषा में धर्मोपदेश दिये जाने का उल्लेख है। दशवैकालिक को वृत्ति में कहा गया है कि तत्वदृष्टाओं-सर्वज्ञों ने चारित्र की आकांक्षा करने वाले बालक, स्त्रियाँ, बूढ़े, अशिक्षित-सभी को लाभान्वित करने हेतु प्राकृत में धर्म सिद्धान्तों की विवेचना की । भगवान महावीर द्वारा सूत्ररूप में-संक्षेप में समुपदिष्ट धर्माख्यान का उनके प्रमुख शिष्यों-गणधरों ने संग्रथन किया, जो द्वादशांग के रूप में विश्रुत हुआ । द्वादशाँग में बारहवां अंग दृष्टिवाद विलुप्त हो गया । अवशिष्ट अंग जैसे जितने संकलित हो सके, सुरक्षित रह सके, आज भी हमें उपलब्ध हैं। आगम वाङमय में तत्त्व-दर्शन, पदार्थ-विज्ञान, श्रमणाचार, श्रावकाचार, विरति प्रत्याख्यान, तप आदि धर्मोपयोगी विभिन्न विषयों का तो विस्तृत विवेचन है ही, प्रसंगोपात्तरूप में लोक-जीवन, सामाजिक स्थिति, कृषि, व्यापार-व्यवसाय, जनपद,नगर । ग्राम, उद्यान, पथ, राजा, प्रजा, शस्त्र, सेना, प्रशासन, कला, परिबेश, देह-सज्जा, अलंकरण, वस्त्र, बर्तन, भवन आदि विभिन्न लौकिक विषयों का भी बहुत ही सजीव चित्रण है । इस दृष्टि से जैन आगम न केवल जैन तत्त्व ज्ञान तथा जैन आचार-बोध के लिए ही पठनीय हैं, अपितु भारतीय जीवन का सही स्वरूप जानने की दृष्टि से भी उनका अध्ययन प्रत्येक भारतीय विद्याभ्यासी के लिए अपेक्षित है। श्रुत का सुविकास जैन वाङमय की यह अमर धारा अनेक श्रुतोपासक आचार्यों, उपाध्यायों, मुनियों तथा विद्वानों द्वारा उत्तरोत्तर संवधित और सुविकसित होती रही । जब भारत में नैयायिक पद्धति से संस्कृत में धर्म-तत्त्वों के विश्लेषण का क्रम गतिमान था, जैन १ “भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्ख इ । -समवायांग सूत्र-३४.२२ २ बाल स्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । • अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञ : सिद्धान्तः प्राकृतःकृतः ॥ -दशवकालिक वृत्ति पृष्ठ २२३
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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