SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना | २७ की भाषा में वह अन्तर्जगत् के तुमुल संग्राम की स्थिति है। आगम-वाङमय में बड़े ओजपूर्ण शब्दों में कहा गया है “साधक ! तुम अपनी आत्मा के साथ युद्ध करो, अपने आप से जूझो, बाहरी युद्ध से क्या मधेगा । जो आत्मा द्वारा आत्मा को जीत लेता है, वह वास्तव में सुखी हो जाता है।"१ __ "आत्मा का, अपने आपका दमन करो। आत्मदमन-आत्मविजय वस्तुतः बहुत कठिन है। जो अपने आपका दमन करता है, अपने आप पर विजय प्राप्त करता है, वह इस लोक में तथा परलोक में सुखी होता है।"२ __“एक योद्धा दुर्जय युद्ध में लाखों योद्धाओं को जीतने में सक्षम हो सकता है, पर वह जय परम जय नहीं है। उसे यथार्थ विजय नहीं कहा जा सकता । वह केवल अपनी आत्मा को जीत ले, परम जय वह है। क्योंकि उसमें बहुत बड़े अन्तर्बल की आवश्यकता होती है ।"3 "साधक, तुम अपने आपका निग्रह करो-अपने आप पर नियन्त्रण करो। ऐसा कर तुम समस्त दुःखों से छुट जाओगे।" ' यह छुटने-छटकारा पाने की स्थिति ही तो मोक्ष है, जिसका तात्पर्य आत्मा का अपने सत्-चित्-आनन्दमय शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होना है। दूसरे शब्दों में आत्मभाव से ऊँचे उठकर परमात्मभाव को स्वायत्त करना है । जैन दर्शन के अनुसार साधना की यह यात्रा बन्धन से मुक्ति की और गतिशील होती है । हेय , उपादेय, ज्ञेय का यथार्थ ज्ञान वहाँ अपेक्षित है। सत्यानुरूप चरण या चर्या द्वारा वह ज्ञान सार्थकता पाता है। ज्ञान की गंगा . धर्मतीर्थ के संस्थापक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थकर अपनी धर्म-देशना द्वारा ज्ञान की निर्मल गंगा बहाते रहे हैं । वर्तमान कालक्रम के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर थे, जिन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण के लिए अपनी देशना द्वारा सत्य का संप्रसार किया। १ अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए । -उत्तराध २ अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य । -उत्तराध्ययनसूत्र १.१५ ३ जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ। -उत्तराध्ययनसूत्र ६.३४ ४ पुरिसा ? अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । -आचारांग सूत्र १.३.३
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy