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२६ | प्रस्तावना
यह असंकीर्ण धर्म है, जो विश्वजनीन, शाश्वत सत्यमूलक आदर्शों पर टिका है, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, वर्ण आदि बाह्य भेदों से अतीत है । यों यह सत्य - प्रधान, सत्कर्म - प्रधान एवं सद्गुणप्रधान अध्यात्म - अभियान है । एतन्मूलक ज्ञानमय स्रोत अनादि-अनन्त है, जो काल के उत्कर्ष एवं अपकर्ष के कारण उत्तम, मन्द आदि स्थितियों में से गुजरता है, लीन-विलीन होता है, समय पाकर पुनः उद्भासित होता है ।
जैन धर्मं नितान्त लोक-जनीन है. जन जन का है, प्राणीमात्र का है। सम्राट प्रबल सत्ताधीश जहां इसकी उपासना के अधिकारी हैं, वहां सामान्य से सामान्य पुरुष को भी धर्माराधना का उतना ही अधिकार प्राप्त रहा है । उच्चकुलोत्पन्न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि इसके जितने अधिकारी रहे हैं, कृषक, श्रमिक, परिचारक, शुद्ध तथा अन्त्यज तक इसके उतने ही अधिकारी रहे हैं । इसमें उच्चता का आधार गुण है, जन्म नहीं । इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययन सूत्र का वह प्रसंग बड़ा उद्बोधक है, जहां परम तपस्वी हरिकेश मुनि की चर्चा है । वे जन्मना अन्त्यज थे । सूत्रकार ने बड़े हृदयस्पर्शी शब्दों में लिखा है
'यहाँ ' ( इनके व्यक्तित्व में ) तप का वैशिष्य प्रत्यक्षतः दृश्यमान है, जातिवैशिष्ट्य कुछ भी दिखाई नहीं देता । साधु हरिकेश, जो जन्मना श्वपाकपुत्र - चाण्डाल कुलोत्पन्न है, तप की कैसी महनीय ऋद्धि से समायुक्त हैं ।'
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सूत्रकार का हरिकेश मुनि के विलक्षण तपोवैभव के प्रति कितना समादर है, उधृत गाथा की शब्दावली से यह भलीभाँति प्रकटित है ।
जैनधर्मं के ये चिरन्तन आदर्श अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों में से गुजरते रहने के बावजूद आज भी सर्वथा विलुप्त नहीं हुए हैं, किसी न किसी रूप में संप्रतिष्ठ हैं ।
जैन दर्शन का साध्यः साधना की यात्रा
अद्वैत वेदान्त (केवलाद्वत) कहता है, यह जगत् मिथ्या है। अविद्या ( अज्ञान ) के कारण सत्य की ज्यों प्रतीत होता है। जैन दर्शन की भाषा में इसका निरूपण जरा भिन्न कोटि का स्पर्श करता है । उसके अनुसार जगत् का अस्तित्व तो है, जगत् है ही नहीं - ऐसा नहीं है, किन्तु वह [ जगत् ] आत्मा का साध्य नहीं है । वह पर है, आत्मा को उससे छूटना है, विभावावस्था से स्वभाव में आना है ।
एतदर्थं साधक को आत्मा पर छाये हुए कर्म मल का अपगम करना होता है । दूसरे शब्दों में आत्मशोधन हेतु अति तीव्र अध्यवसाय में जुटना होता है । अध्यात्म
१ सक्खं खुदीसई तवो विसेसो, न दीसइ जाइविसेस कोई । सोवागपुत्तो हरिएस साहू, जस्सेरिसा इड्ढी महाणुभावा ॥
- उत्तराध्ययन १२।३७