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________________ प्रस्तावना | २५ ( ध्यान करने योग्य) है । इस आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन एवं विज्ञान से सब का ज्ञान होता है, यही प्रयोजनभूत ज्ञान है । ११ बड़ी प्रेरक कहानी है यह, जो भारतीय चिन्तनधारा के उस अनादि अनन्त स्रोत की ओर इंगित करती है, जो सूक्ष्मतम का संस्पर्श करता हुआ अपने सर्वतोभद्र ध्येय की ओर सदा अविश्रान्त रूप में अग्रसर रहा। आध्यात्मिक चिन्तन, दार्शनिक ऊहापोह, साधना के बहुमुखी आत्मस्पर्शी प्रयोग आदि की दृष्टि से वस्तुतः वह समय बड़ा महिमामय रहा है । जैन दर्शन आध्यात्म प्रधान चिन्तनधारा में जैनदर्शन का अपना महत्वपूर्ण स्थान है । जैसा इसके नाम से प्रकट है, यह जिनप्ररूपित तत्त्व ज्ञान पर आधृत है । 'जिन' जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है, जो अपने आप में बड़ा विशद तथा गहन अर्थ लिये हुए है । जिनत्व साधना का वह परमोत्कर्ष या चरमोत्कर्ष है, जहाँ साधक राग और द्वेष से अतीत हो जाता है, क्रोध, मान, माया तथा लोभ के प्राचीरों को लांघ जाता है, जो उसकी अन्तश्चेतना पर घेरा डाले थीं । साधक विभावावस्था को ध्वस्त कर डालता है. वह स्वभावस्थ हो जाता है, स्वस्थ हो जाता है । उसके अनन्त ज्ञान तथा अनन्त शक्तिमत्ता के आवश्यक पर्दे हट जाते हैं। वर्तमान, भूत, भविष्य, स्थूल, सूक्ष्म, परोक्ष, व्यवहित - सब हस्तामलकवत् हो जाते हैं । ऐसे वीतरागों में विशिष्ट धर्मतीर्थस्थापक महापुरुष प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सत्य का सन्देश देते हैं, जो ज्ञान एवं आचार के साक्षात्कृत स्वयं अनुभूत तथ्यों पर आवृत होता है, त्रिकालाबाधित होता है । वह जैन - जिनदेशित धर्म है । १ मैत्रयीति होवाय याज्ञवल्क्य उद्यास्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मिाहन्त ! नया कात्यायन्यान्तं करवाणीति ॥ १॥ साहो वाच मैत्रेयी - यन्न म इयं भगोः सर्वा पृथ्वी वित्तेनपूर्णा स्यात्कथं नामृतास्यामिति ? नेति होवाच याज्ञवल्क्यो । यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यादमृतत्वस्य तुं नाशास्ति वित्तेनेति ॥ २ ॥ साहो वाच मंत्री - येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्यां यदेव भगवान् वेद तदेव ब्रूहीति ||३|| स हो वाच याज्ञवल्क्यः प्रिया बतारे नः सती प्रियं भाषस एह यास्व, व्याख्यास्यामि ते व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ||४|| ""आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम् ||५|| —बृहदारण्यकोपनिषद् अध्याय २ ब्राह्मण ४
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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