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२४ | प्रस्तावना
सांसारिक भोगों में केवल क्षण भर के लिए सुख प्राप्त होता है, वे चिरकाल तक दुःख देते हैं, अत्यन्त दुख देते हैं । उनमें सुख बहुत कम है, दुःख ही दुख है । वे मोक्ष सुख के परिपंथी है, अनर्थों की खान हैं ।"
शाश्वत्, अक्षय, निरतिशय आध्यात्मिक आनन्द के साक्षाद्द्रष्टा, सर्वद्रष्टा, रागद्वेष-विजेता आप्त पुरुष की यह वागी उस चिरन्तन सत्य का उद्घाटन करती है, जिससे बहिनिपेक्ष, स्व-सापेक्ष आत्मवादी दर्शन या अध्यात्म चिन्तन का विकास हुआ ।
उपनिषद् - वाङमय में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी की बड़ी सुन्दर कथा है । ज्ञानी याज्ञवल्क्य सब कुछ छोड़कर संन्यास लेने को उद्यत थे। उनके दो पत्नियां थींमैत्री और कात्यायनी । याज्ञवल्क्य के पास पुष्कल सम्पत्ति थी । वे अपनी दोनों पत्नियों के लिए उसे दो भागों में बांट देना चाहते थे। उस सन्दर्भ में मैत्र यी से उनका जो आलाप-संलाप हुआ, मैत्रेयी ने उन्हें जो उत्तर दिये, वे उस प्रबुद्धहृदया सन्नारी के आध्यात्मिक ओज की एक ऐसी कहानी कह रहे हैं, जो अध्यात्म-प्रवण वाङ्मय में सदैव प्रेरणा के एक ज्योतिर्मय स्फुलिंग के रूप में देदीप्यमान रहेगी ।
वार्तालाप - प्रसंग इस प्रकार है
याज्ञवल्क्य बोले - "मैत्रयी, मैं इस स्थान से गृहस्थाश्रम से ऊर्ध्वगामी होना चाहता हूँ । संन्यास लेना चाहता हूँ । अतः अच्छा हो, कात्यायनी के लिए और तुम्हारे लिए अपनी सम्पत्ति के दो भाग कर दूँ ।"
मैत्रयी बोली - स्वामी ! यदि धन से हो जाए तो क्या मैं उससे अजर-अमर हो सकूंगी ?
भरी हुई सारी पृथ्वी भी मुझे प्राप्त
याज्ञवल्क्य का उत्तर था - मैत्रयी ! ऐसा नहीं होता । जैसे अन्य साधन सम्पन्न — वैभवशाली जनों का जीवन होता है, वैसा ही तुम्हारा होगा । धन से अमरता की आशा नहीं है ।
मैत्री ने कहा- जिससे मैं अमर न हो सकूं, उसका क्या करूँ ? अतः कृपया मुझे अमरत्व का मार्ग बतलाइए, जो आप जानते हैं ।
ब्रह्मवादिनी पत्नी का यह कथन सुनकर याज्ञवल्क्य प्रसन्नतापूर्वक कहने हो और अब जो कह रही हो, बड़ी प्रिय व्याख्या विवेचना करूँगा । मेरे द्वारा
लगे - मैत्रयी ! तुम पहले भी हमें प्रिय रही लगने वाली बात है । आओ, बैठो, मैं इसकी व्याख्यात तथ्य पर तुम चिन्तन करना ।
मैत्री ! यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय,
मननीय एवं निदिध्यासनीय
१ खणमित्त सोक्खा बहुकाल - दुक्खा, पगाम- दुक्खा अणिगामदुक्खा । संसार- मोक्खस्सविपक्ख भूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा |