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७६ | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों या पदार्थों पर श्रद्धान हुए बिना आत्मा की ओर सम्मुखता, रुचि, श्रद्धा, उसकी पहिचान या विनिश्चिति उत्तरोत्तर नहीं हो सकती । इस दृष्टि से व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन, एक दूसरे से अनुस्यूत हैं । अतः श्रुतधर्म के सन्दर्भ में आत्मश्रद्धान एवं आत्मज्ञान के लिए देव, गुरु, धर्म, शास्त्र और इनके द्वारा उपदिष्ट ७ या तत्त्वों पर श्रद्धान और ज्ञान आवश्यक है ।
सात और नौ तत्त्वों का रहस्य
जैनागमों में & तत्त्वों का निर्देश किया गया है, जबकि तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रन्थों में सात तत्त्वों का ही उल्लेख है, इस अन्तर के रहस्य को समझ लेना चाहिए। वास्तव में शुभकर्मों का आगमन पुण्याश्रव और अशुभकर्मों का आगमन पापाश्रव है; तथा शुभकर्मों का बन्ध पुण्यबन्ध और अशुभकर्मों का बन्ध पापबन्ध है, इस दृष्टि से पुण्य और पाप इन दो तत्त्वों का अन्तर्भाव आश्रव या बन्ध में हो जाता है । इस कारण तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में सात तत्त्वों का ही निर्देश है । इन्हीं को अतिसंक्षेप में कहना चाहें तो जीव और अजीव इन दो तत्त्वों में समाविष्ट कर सकते हैं ।
तत्त्वभूत पदार्थ सात ही क्यों ?
किसी भी कार्य की सफलता के लिए यथार्थतः सात बातों का जानना और उन पर श्रद्धा करना आवश्यक है । इन्हें जाने या श्रद्धा किये बिना, उक्त महत्त्वपूर्ण कार्य में सफलता तो दूर रही, वह कार्य प्रारम्भ ही न हो सकेगा । इसी प्रकार अगर इन सात तथ्यों (तत्त्वों) में से सिर्फ किन्हीं एक या दो में ज्ञान एवं श्रद्धान के अतिरिक्त शेष तथ्यों की परवाह न करके सम्यदर्शन के सन्दर्भ में श्रुतधर्म की साधना प्रारम्भ कर दी जाएगी, तो आगे चलकर उक्त धर्मसाधक को असफलता, निराशा तथा समय एवं शक्ति के अपव्यय का ही सामना करना पड़ेगा ।
व्यावहारिक उदाहरणों से इस बात को समझिए -
(१) एक व्यक्ति को किसी रासायनिक पदार्थ का कारखाना लगाना है, तो उसे निम्नोक्त तथ्यों पर विचार और निश्चय करना होगा - (१) मूल पदार्थ (Raw Material) क्या है ? (२) उसके सम्पर्क में आकर विकृति (Impurities) पैदा करने वाले विजातीय पदार्थ कौन-से हैं ? (३) उनके मिश्रित होने का क्या कारण है ? (४) पदार्थ का मिश्रित स्वरूप क्या है ?
१ 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम् '
--तत्त्वार्थसूत्र अ. १, सू. ४