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________________ सम्यग्दर्शन-स्वरूप | ७५ या विश्वास है। आत्मा की या आत्मस्वरूप की प्रतीति या विनिश्चय होने पर ही आश्रव एवं बन्ध को छोड़ा जाता है, संवर और निर्जरा की साधना की जा सकती है। आत्मस्वरूप पर या आत्मशक्तियों पर विश्वास नहीं जमा तो बन्धनों को तोड़कर मोक्ष के लिए पुरुषार्थ कैसे किया जाएगा? अतः आत्मा पर यथार्थ श्रद्धा और यथार्थ एवं दृढ़ रुचि, प्रतीति एवं विनिश्चिति, उपलब्धि, अथवा विश्वास ही निश्चयसम्यग्दर्शन है, इससे आत्मा की अमरता और शुद्धता का ज्ञान परिपक्व हो जाता है। सभी अध्यात्मवादी दर्शनों ने आत्मा (जीव) को अन्य सभी तत्त्वों का राजा, प्रमुख या चक्रवर्ती कहा है। जीव (आत्मा) का वास्तविक बोध या अनुभव होने पर अजीव को पहचानना आसान हो जाता है, क्योंकि जीव का प्रतिपक्षी अजीव है। इसीलिए जीव के अतिरिक्त जितने भी पदार्थ हैं, वे सब एक या दूसरे प्रकार से जीव से ही सम्बन्धित हैं, जीव की सत्ता के कारण ही उन सबकी सत्ता है। फलितार्थ यह है कि समग्र आत्मधर्म या अध्यात्मज्ञान का आधार यह जीव ही है । इसीलिए जब निश्चयसम्यग्दर्शन (जिसमें कि आत्मा की अनुभूति, श्रद्धा और विनिश्चिति होनी अनिवार्य है,) से यह निश्चय हो जाता है कि मैं अजीव से भिन्न चेतन आत्मतत्व हैं, तब आत्मा में किसी प्रकार का मिथ्यात्व और अज्ञान नहीं रहता। ऐसी स्थिति में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति जब जीव और अजीव, इन दोनों तत्त्वों के परमार्थ और स्वरूप को जानकर अजीव को छोड़ता और जीवतत्त्व में लय हो जाता है, तब वह आत्मधर्म -श्रुतधर्म का आराधक होता है। जिसके फलस्वरूप राग-द्वष का क्षय करके अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है। ___'पर' में स्व-बुद्धि तथा 'स्व' में पर-बुद्धि का रहना ही मिथ्यात्व है, जो बन्धकारक है, जबकि 'स्व' में स्व-बुद्धि और 'पर' में पर-बुद्धि का रहना ही भेद-विज्ञान है । यही निश्चयसम्यग्दर्शन का कारण है। निश्चय और व्यवहारसम्यग्दर्शन का समन्वय ___ यह बात अनुभवसिद्ध है कि जब तक आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध से जिन सात या नौ तत्त्वों की सृष्टि होती है, उनके तथा उनके उपदेष्टा देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के प्रति श्रद्धान नहीं होता, तब तक आत्मस्वरूप का विनिश्चय या अनुभव नहीं हो पाता; क्योंकि परम्परा से ये सभी एक दूसरी तरह से आत्मश्रद्धान के कारण हैं। जैसे-देवादि पर श्रद्धान बिना, उनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों या पदार्थों पर श्रद्धान नहीं हो सकता, उनके
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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