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७२ | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
इन दोनों शंकाओं में से प्रथम शंका का समाधान यह है कि मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी तत्त्वभूत पदार्थ चाहे जिनको बताते हों, अथवा अन्य दर्शन भी अपनी-अपनी परम्परानुसार तत्त्वभूत पदार्थ बताते हों, परन्तु व्यवहारसम्यग्दर्शन की व्याख्या करने वाले आचार्यों ने यह स्पष्ट कर दिया है जिनभाषित या जिनप्रज्ञप्त, तीर्थंकरोपदिष्ट तत्त्व ही तत्त्वभूत हैं, अन्य नहीं।
वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव ने इन्हीं पदार्थों को तत्त्वभूत इसलिए बताया है क्योंकि जीवतत्त्व ही सब में मुख्य तत्त्व है, वही शेष तत्त्वों का केन्द्र है। शेष पदार्थ इसी जीवतत्त्व (आत्मा) के विकास एवं ह्रास में एवं शुद्धि-अशुद्धि में, विकृति-अविकृति में निमित्त-कारण हैं । जीव तत्त्व के अतिरिक्त शेष ८ तत्त्वभूत-पदार्थों में आत्मा की संसारवृद्धि और संसारहास के कारणभूत सभी पदार्थ समाविष्ट हो जाते हैं । अतः जिन भगवान् ने उन्हीं पदार्थों को तत्त्वभूत बताना आवश्यक समझा जो आत्मा के चरम विकास के लिए साधक या बाधक हैं । तथा इन्हीं पदार्थों में कौन-से पदार्थ हेय, ज्ञय
और उपादेय हैं ? यह बताना भी आवश्यक था। इसी दृष्टि से जिनेन्द्र प्रभु ने जीव-अजीव को ज्ञेय; पाप, आश्रव और बन्ध, इन तीनों पदार्थों को हेय; संवर, निर्जरा और मोक्ष को उपादेय तथा पुण्य को कथञ्चित् हेय, कथंचित् उपा- . देय बताकर इनकी तत्त्वरूपता सिद्ध कर दी है।
सूत्रप्राभृत में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है-जिनेन्द्र भगवान् ने जीव-अजीव आदि बहुविध पदार्थ सुतथ्य बताये हैं, उनमें से जो हेय हैं, उन्हें हेयरूप में और उपादेय को उपादेयरूप में यथातथ्य जानता-समझता है, वही सम्यग्दृष्टि है।
निष्कर्ष यह है कि जिन भगवान् ने हेय, ज्ञय, उपादेय; इन तीनों में से जो पदार्थ जैसा भी जिस रूप में अवस्थित है, उसका वैसा रूप बताकर जीवादि पदार्थों की तत्त्वरूपता स्पष्ट कर दी है।
१ जैसे कि वेदान्तदर्शन कहता है—'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' सांख्य और योग क्रमशः
२५ और २६ (ईश्वर सहित) तत्त्व मानते हैं। २ (क) 'जिणपण्णत्तं तत्तं'
-आवश्यक सूत्र (ख) 'रुचिजिनोक्ततत्त्वेषु
-योगशास्त्र ३ उत्तमगुणाण धाम, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं ।
तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदा ।। ४ सुतत्थं जिणभणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं ।
हेयाहेयं च तहा जो जाणइ, सो हु सुद्दिट्ठी ।। -सूत्रप्राभृत गा. ५