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________________ पंचम कलिका सम्यग्दर्शन-स्वरूप (श्रु तधर्म) यह पहले कहा जा चुका है कि कोई भी ज्ञान तभो सम्यक् बनता है, जब व्यक्ति की दृष्टि या दशन सम्यक हो। इसीलिए सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यरज्ञान की प्राप्ति का कारण सुशास्त्र भी तभी सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्श्रुत हो सकता है, जबकि सम्यग्दर्शन उससे पूर्व हो। . . दूसरी दृष्टि से देखें तो सम्यग्दर्शन को मोक्ष का साधन बताया गया है। इसलिए मोक्ष आत्मा से सम्बन्धित होने के कारण सम्यग्दर्शन भी आत्मा का धर्म है । जैसे ज्ञान आत्मा का निजी गुण है, वैसे दर्शन भी है । अतः जैसे सम्यग्ज्ञान का आराधन श्रुतधर्म कहलाता है, वैसे ही सम्यक्त्व का आराधन भी श्रुतधर्म है। व्यवहार सम्यग्दर्शन का लक्षण सम्यग्दर्शन का लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में किया गया है तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।" अर्थात् --- 'तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।' परन्तु इस लक्षण से यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि तत्त्वभूत पदार्थ कौन से हैं ? और वे ही क्यों तत्त्वभूत पदार्थ हैं ? इसके अतिरिक्त एक शंका यह भी हो सकती है कि कोई व्यक्ति प्रखरबुद्धि का है, उसने शास्त्र या ग्रन्थ पढ़कर या सुन-रटकर ६ तत्त्वों को जान भी लिया, तथा उन तत्त्वों के भेदप्रभेद, अर्थ, लक्षण, परिभाषाएँ आदि कण्ठस्थ भी कर चुका, उनके विषय में शंका-समाधान भी कर देता है, उक्त तत्त्वज्ञान की परीक्षा में भी वह उत्तीर्ण हो चुका है, तत्त्वों पर वह लम्बी-चौड़ी व्याख्या भी कर सकता है, अपने परम्परागत संस्कारों के करण वह अपने सम्प्रदाय के गुरु से तत्त्वभूत पदार्थों का स्वरूप समझ चुका है, वाणी से प्रकट भी करता है, ऐसी स्थिति में क्या वह व्यक्ति सम्यग्दर्शन-सम्पन्न माना जा सकता है ? १ तत्त्वार्थमूत्र अ. १, सु.२
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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