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६४ | जैन तत्त्वकलिका : चतुर्थ कलिका
१६ प्रहर पर्यन्त १८ देशों के गणराजाओं आदि परिषद के समक्ष व्याख्यान किया था । उत्तराध्ययनसूत्र में ३६ अध्ययन इस प्रकार हैं- ( १ ) विनयश्रत, (२) परीषहप्रविभक्ति, (३) चतुरंगीय, (४) असंस्कृत, (५) अकाममरणीय, (६) क्षुल्लक निग्रन्थीय, (७) उरश्रीय, (८) कापिलीय, ( 1 ) नमिप्रवज्या, (१०) द्रुमपत्रक, (११) बहुश्रुत, (१२) हरिकेशीय, (१३) चित्तसम्भूतीय, (१४) इकारीय, (१५) सभिक्षुक, (१६) ब्रह्मचर्य समाधिस्थान, (१७) पापश्रमणीय, (१८) संजयीय. (१६) मृगापुत्रीय, (२०) महानिग्रन्थीय (२१) समुद्रपालीय, (२२) रथनेमिीय, (२३) केशिगौतमीय, (२४) प्रवचनमाता, (२५) यज्ञीय, (२६) सामाचारीय, (२७) खलु कीय, (२८) मोक्षमार्गगति, (२६) सम्यक्त्व - पराक्रम, (३०) तपोमार्गगति, (३१) चरणविधि (३२) अप्रमादस्थान, (३३) कर्मप्रकृति, (३४) लेश्याध्ययन, (३५) अनगारमार्गगति और (३६) जीवाजीव - विभक्ति ।
(२) दशवेकालिक सूत्र - इस सूत्र के रचयिता आचार्य शय्यंभव हैं । इसमें मुख्यतया साधुओं के आचार-विचार सम्बन्धो वर्णन है । इसमें १० अध्ययन इस प्रकार हैं- (१) द्र मपुष्पिका (धर्मप्रशंसा तथा साधु की माधुकरी वृत्ति का वर्णन ), (२) श्रामण्यपूर्वक (साधुजीवन में संयम, त्याग और धृति में स्थिरता का वर्णन), (३) क्षुल्लकाचारकथा - (निर्ग्रन्थों द्वारा अनाचीर्ण १२ आचार), (४) षट्जीवनिका ( षट्कायिक जीवों की रक्षा, पंचमहाव्रत और और श्रमण की क्रमबद्ध साधना का वर्णन ) (५) पिण्डेषणा (दो उद्दे शकों में साधु की भिक्षावृत्ति और एषणासम्बन्धी वर्णन ) (६) महाचारकथा, (७) वाक्यशुद्धि, (८) आचारप्रणिधि ( 8 ) विनयसमाधि ( चार उद्दे शकों में विनयसम्बन्धी वर्णन) और (१०) सभिक्षु ( भिक्षु के वास्तविक साधनात्मकगुणों का वर्णन ) ।
(३) नन्दीसूत्र - इसमें वीरस्तुति, संघस्तुति, तीर्थंकर - गणधर नाम, स्थविरावली, त्रिविधपरिषद्, और तत्पश्चात् मुख्यतया पाँच ज्ञानों का विस्तृत वर्णन है ।
(४) अनुयोगद्वार - इसमें उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ( प्रमाणादि) चार मुख्य अनुयोग द्वारों का विस्तृत वर्णन है ।
चार छेदसूत्र - परिचय
(१) दशाश्रु तस्कन्ध - इसमें २० असमाधिदोष, २१ शबलदोष, ७ निदान ( नियाणा) आदि का वर्णन है ।
(२) बृहत्कल्पसूत्र - इसमें साधु के लिए कल्पनीय अकल्पनीय वस्त्र, पात्र शय्या (बस्ती-मकान) आदि का वर्णन है ।