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श्रुत धर्म का स्वरूप | ६३
(१) अक्षरश्र त--अक्षर (स्वरों और व्यंजनों) से उत्पन्न ज्ञान ।
उपचार से अक्षर को भी श्र त कहा गया है। अतः अक्षरश्रुत के तीन भेद हैं—(क) संज्ञाक्षर--(नागरी आदि लिपियों के अक्षर का आकार) (ख) व्य जनाक्षर--(अक्षर का उच्चारण या ध्वनि), और (ग) लब्ध्यक्षर--(अक्षर सम्बन्धी क्षयोपशम--ज्ञानरूप अक्षर)।
(२) अनक्षरथ त---खांसने, छींकने, चुटकी से या नेत्रादि के इशारे से होने वाला ज्ञान ।
(३) संज्ञिश्रुत--यहाँ संज्ञा शब्द पारिभाषिक है। संज्ञा के तीन प्रकार होने से संज्ञिथ त के भी तीन प्रकार हैं--(क) दीर्घकालिकी--(जिसमें भूतभविष्य का लम्बा विचार किया जाता है । (ख) हेतूपदेशिकी--(जिसमें केवल वर्तमान की दृष्टि से आहारादि में हिताहित बुद्धि पूर्वक प्रवृत्ति होती है),
और (ग) दृष्टि वादोपदेशिकी--(सम्यक्च त के ज्ञान के कारण अथवा आत्मकल्याणकारी उपदेश से जो संज्ञान हिताहित बोध होता है ।)
(४) असंज्ञिशुत--असंज्ञी जीवों को होने वाला श्रु तज्ञान । इसके भी तीन प्रकार हैं--(क) जो दीर्घकालिक विचार नहीं कर सकने वाले, (ख) अमनस्क--अत्यन्तसूक्ष्म मन वाले, और (ग) मिथ्याश्र त में निष्ठा वाले।
. (५) सम्यक्श्रु त-उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारक सर्वज्ञ सर्वदर्शी अर्हत्प्रणीत एवं गणधरग्रथित द्वादशांगी अंगप्रविष्टश्रुत तथा जघन्य दशधरोंवयूद्वारा रचित उपांग आदि अंग बाह्य शास्त्रों द्वारा होने वाला ज्ञान सम्यक् त कहलाता है।
अंगप्रविष्ट आचारांग आदि १२ अंगशास्त्र हैं, और अंगबाह्य में बारह उपांग हैं । चार मूलसूत्र (उत्तराध्ययन, दशवकालिक, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार) तथा चार छेद सूत्र (वहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र, निशीथसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध) हैं। ये सब मिलाकर यद्यपि ३२ सूत्र होते हैं; किन्तु वर्तमान में बारहवाँ अंग दृष्टिवाद लुप्त है, इसलिए विद्यमान ३१ सूत्र ही माने जाते हैं तथा एक आवश्यक सूत्र ये कुल मिलाकर ३२ सूत्र प्रमाणभूत माने जाते हैं। चार मूलसूत्र-परिचय
(१) उत्तराध्ययन सूत्र--भगवान् महावीर ने निर्वाण के समय पावापुरी में विपाकसूत्र के ११० अध्ययन और उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों का १ नन्दीसूत्र सू. १३, १४, ४४ २ इन सबका विस्तृत वर्णन 'उपाध्याय-स्वरूप वर्णन' में दिया गया है। सं०