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श्रुत धर्म का स्वरूप | ६१
उपदेशश्रवण या संसर्ग उसके लिए अहितकर नहीं होता । सम्यग्ज्ञानरूपी कवच के कारण वह सदैव मिथ्यात्व के दोषों से बचा हुआ - सुरक्षित रहता है । इसी कारण वह धार्मिक कलह को भी शान्त कर सकता है । जिस सम्यग् - दर्शन के प्रभाव से ज्ञान सम्यक बन जाता है, उस सम्यग्दर्शन का सांगोपांग वर्णन भी श्र धर्म से सम्बन्धित होने से हम अगले प्रकरण में करेंगे । सम्यग्ज्ञान के प्रकार
सम्यग्दर्शन से युक्त ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, और वह मुख्यतया पांच प्रकार का है - ( १ ) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्यवज्ञान और (५) केवलज्ञान |
मतिज्ञान
पांचों इन्द्रियों तथा मन से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । वह चार प्रकार से होता है- अवग्रह से, ईहा से, अवाय से और धारणा से । * कभी स्पर्शेन्द्रिय से, कभी रसनेन्द्रिय से कमो घ्राणेन्द्रिय से कभी चक्षुरि•न्द्रिय से और कभी श्रोत्रेन्द्रिय से तथा कभी मन से होता है । इस कारण इसके चौबीस (४x६ = २४) भेद हो जाते हैं ।
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अवग्रहज्ञान दो प्रकार का होता है-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह | अर्थावग्रह के ६ भेद (पाँच इन्द्रिय और छठा मन ) पहले कहे जा चुके हैं । व्यञ्जनावग्रह के चार भेद हैं, क्योंकि वह चक्षु और मन के अतिरिक्त सिर्फ चार इन्द्रियों से होता है । यों पूर्वोक्त चौबीस और ये चार भेद व्यंजनावग्रह के मिलाकर मतिज्ञान के कुल २८ भेद होते हैं । ये ही २८ भेद क्षयोपशम और विषय की विविधता को लेकर प्रत्येक बारह-बारह प्रकार के होते हैं । जैसे - ( १ ) बहुग्राही, (२) अल्पग्राही, (३) बहुविधग्राही, (४) अल्पविधग्राही, (५) क्षिप्रग्राही, (६) अक्षिप्रग्राही, (७) अनिश्रितग्राही (अलिंगग्राही), (८) निश्रितग्राही (सलिंगग्राही), (६) असंदिग्धग्राही, (१०) संदिग्ध - ग्राही, (११) ध्रुवग्राही और ( १२ ) अध्रुवग्राही ।
पूर्वोक्त २८ भेदों को १२ के साथ गुणित करने पर ३३६ भेद होते हैं । इन ३३६ भेदों में चार प्रकार की बुद्धि मिला देने से मतिज्ञान के ३४० भेद हो जाते हैं ।
१ उग्गह ईहावाओ य, धारणा एव हुति चत्तारि । बिहिया भेयवत्थु समासेणं ||
२ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।
-- नन्दी सूत्र, मतिज्ञानप्रकरण
---तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १, सूत्र १४ —तत्त्वार्थ० १।१६
३ 'बहु-बहुविध क्षिप्रानिश्रितासंदिग्ध ध्रुवाणां सेतराणाम्' ।