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६० | जैन तत्त्वकलिका : चतुर्थ कलिका
सम्यग्दृष्टि से युक्त जीव का ज्ञान चाहे थोड़ा हो, सामग्री या क्षयोपशम की न्यूनता के कारण किसी विषय में किसी भी प्रकार का संशय हो, भ्रम भी हो, उसका ज्ञान भी अस्पष्ट हो, परन्तु सत्यगवेषक, जिज्ञासु और कदाग्रहरहित होने के कारण, वह अपने से महान् प्रामाणिक एवं विशेषदर्शी व्यक्ति के आश्रय से अपनी कमी को सुधारने के लिए प्रस्तुत रहता है, अपनी त्रुटि सुधार भी लेता है, और अपने ज्ञान का उपयोग वह वासनापोषण में न करके प्रायः आध्यात्मिक विकास में करता है।
किन्तु सम्यग्दृष्टि से रहित जीव का स्वभाव इससे विपरीत होता है, उसकी दृष्टि मिथ्या एवं कदाग्रही होने के कारण वह सम्यकशास्त्रों का उपयोग भी विपरीत रूप में करता है, सामग्री तथा क्षयोपशम की अधिकता के कारण कदाचित् उसे निश्चयात्मक, स्पष्ट और अधिक ज्ञान भी हो सकता है, लेकिन उसकी दृष्टि कदाग्रही एवं विपरीत होने से अभिमानवश किसी विशेषदर्शी के विचारों को तुच्छ समझकर ग्रहण नहीं करता और अपने ज्ञान. का उपयोग भी आध्यात्मिक उत्क्रान्ति में न करके प्रायः सांसारिक महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में करता है। सम्यक्श्रुत एवं मिथ्याश्रुत
नन्दीसूत्र में श्रुत (शास्त्र) भी दो प्रकार के बताये गए हैं--(१) . सम्यक्च त और (२) मिथ्याश्रु त । वहाँ सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रु त के कुछ अन्य नाम भी गिनाए गए हैं। वहाँ स्पष्टरूप से कहा गया है कि सम्यक्श्र त कहलाने वाले शास्त्र भी मिथ्यादृष्टि के हाथों में पड़कर मिथ्यात्व बुद्धि से परिगृहीत होने के कारण मिथ्याश्रुत हो जाते हैं, और इसके विपरीत मिथ्याश्रु त कहलाने वाले शास्त्र सम्यग्दृष्टि के हाथों में पड़कर सम्यक्त्व से परिगृहीत होने के कारणं सम्यक्श्रु त बन जाते हैं.।
अतएव सम्यग्दर्शनयुक्त होने से सम्यग्ज्ञान का इतना प्रबल प्रभाव है कि सम्यग्दृष्टि के कारण सम्यग्ज्ञानी की दृष्टि विशाल, उदार, आग्रहरहित, प्रशान्त और निक्षेप, नय-प्रमाण, अनेकान्त आदि वादों को भलीभाँति समझ कर उनका प्रयोग करने वाली बन जाती है। अतः किसी भी धर्म-शास्त्र, यहाँ तक कि मिथ्या कहलाने वाले शास्त्रों (श्रु त) का भी अध्ययन, मनन, वाचन,
१ 'सम्मसुयं, मिच्छासुयं ।' २ एआइ मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाइ मिच्छासुयं । ___एआइ चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाइ सम्मसुयं ॥
-नन्दीसूत्र श्रुतज्ञान प्रकरण