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श्रुत धर्म का स्वरूप | ५६
रूप बनकर आत्मा का वेभाविक उन्माद दूर करके उसे स्वाभाविक दशा में स्थिर करता (जागृत रखता) है ।
मुण्डकोपनिषद में भी सम्यग्ज्ञान को आत्म-प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन बतलाया गया है । आत्म-शोधन से सम्बन्धित सभी धर्मशास्त्रों में सम्यग्ज्ञान को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। सम्यग्ज्ञान को महिमा बताते हुए कहा है कि एक व्यक्ति को सम्यग्ज्ञानाभिमुख करना और चौदह रज्जुप्रमाण लोक के प्राणिमात्र को अभयदान देना एक समान है।
तात्पर्य यह है कि चौदह रज्ज्वात्मक लोक के जीवों को अभयदान देने की कुन्जी एकमात्र सम्यग्ज्ञान है । ज्ञानाग्नि ही समस्त कर्मों को भस्म कर देती है।
सम्यग्ज्ञान क्या और कैसे ? वैसे तो प्रत्येक जीव में किसी न किसी प्रकार का तथा कम या अधिक मात्रा में ज्ञान अवश्य रहता है, किन्तु वह सम्यग्ज्ञान तभी कहलाता है, जब सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) का सद्भाव हो। शास्त्रकारों ने बतलाया है कि कोई व्यक्ति चाहे जितना विद्वान् हो, षट्दर्शन का धुरन्धर पण्डित हो, व्याकरण, साहित्य, न्याय आदि विद्याओं का आचार्य हो, प्रसिद्ध वक्ता हो, व्यवहारकुशल हो, अभिनय एवं मनोरंजन करने में प्रवीण हो, उसका उक्त ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता तथा कर्मबंधन के फलसहित (सफल) ही होता है। ___आध्यात्मिक दृष्टि से सम्यग्ज्ञान वही कहलाता है, जिससे आध्या- . त्मिक उत्क्रान्ति (विकास) हो, जिस ज्ञान के पूर्व सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, जिस ज्ञान के आविर्भाव से क्रोधादि कषाय मन्द हो जाते हैं, संयम और समभाव का पोषण होता हो, चित्तवृत्तियाँ शुद्ध होतो हों, आत्मशुद्धि होती हो ।
सम्यग्ज्ञान और असम्यग्ज्ञान (मिथ्याज्ञान या अज्ञान) में यही अन्तर है कि पहला सम्यक्त्वसहचरित (सहित) है, जबकि दूसरा सम्यक्त्वरहित (मिथ्यात्व-सहचरित) है । जिससे संसारवृद्धि या आध्यात्मिक पतन हो वह असम्यग्ज्ञान (मिथ्याज्ञान) है।
१ सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यप आत्मा । - सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ॥ २ ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ! ३ जे याऽबुद्धा महाभागा, वीराऽसमत्तदंसिणो ।
असुद्ध तेसि परकंतं, सफलं होइ सचसो ।
-मुण्डकोपनिषद् -भगवद्गीता, अ.४ श्लो.७
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-सूत्रकृतांग श्रु.१ अ-८ गा.२२