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५८ | जैन तत्त्वकलिका : चतुर्थं कलिका
और अनुभवी साधु पुरुषों के सान्निध्य में पहुँचकर सूत्र के अर्थों का श्रवणमनन करना चाहिए। जिन व्यक्तियों ने अक्षर ज्ञान नहीं पढ़ा है, वे भी सूत्र के अर्थ पर विशेष ध्यान देकर स्व-परकल्याण कर सकते हैं । इसीलिए एक आचार्य ने स्वाध्याय को श्रुतधर्म कहा है ।
श्रुतज्ञान (शास्त्रज्ञान) का माहात्म्य बताते हुए कहा है - चाहे जैसे गाढ़ कीचड़ में पड़ी हुई सूई छोटे-से सूत्र - डोरे से युक्त हो तो वह गुम नहीं होती, वैसे ही सूत्रसहित (शास्त्र-स्वाध्याययुक्त) जीव संसार में रहता हुआ भी आत्मभान से वंचित नहीं होता ।
श्रुतधर्मं अक्षय और शाश्वतसुखरूप मोक्ष को दिलाने वाला है । क्योंकि शास्त्र में कहा है- सम्यग्ज्ञान विश्व के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला है | अतः सम्यग्ज्ञान शाश्वत सूर्य है । वह कभी न बुझने वाला दीपक है। उसके जगमगाते हुए प्रकाश से मोह, मात्सर्य, स्वार्थ, ईर्ष्या, क्रूरता, लुब्धता, आदि अनेक रूपों में फैला हुआ अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है । अज्ञान और मोह के नष्ट होते ही राग-द्व ेष का समूल नाश हो जाता है । ऐसी वीतरागदशा प्राप्त होते हो जीव एकान्तसुख-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
विधिपूर्वक त ( शास्त्र ) का अध्ययन करने से आत्मा को पदार्थों का सम्यक् बोध हो जाता है, जिसके फलस्वरूप आत्मा को सम्यग्ज्ञान को प्राप्ति होती है और फिर उसके प्रभाव से वही आत्मा श्रुत (ज्ञान) समाधि से युक्त होकर स्वयं मोक्ष मार्ग में निष्ठापूर्वक स्थिर हो जाती है तथा अन्य मुमुक्षु साधकों को भी मोक्ष मार्ग में स्थिर करने में समर्थ हो जाती है । इसलिए श्रुतधर्म का अवश्यमेव आलम्बन लेना चाहिए ।
जब तक साधक को सर्वज्ञता ( केवलज्ञान ) प्राप्त न हो तब तक सर्वज्ञता प्राप्त कराने वाले श्रुतज्ञान का यथाशक्ति अभ्यास करते रहना चाहिए, जिससे अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति हो सके, क्योंकि क्रियाकाण्ड अनुष्ठान औषध है और सम्यग्ज्ञान पथ्य है । सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से अनुष्ठान अमृत
१ 'सुअधम्मो सज्झाओ'
२ जहा सुई सत्ता पडियावि न विणस्सs |
तहा जीवो ससुत्तो संसारे विन विणस्स ।।
३ नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णाणमोहस्स विवज्जणाए ।
रागस्स दोसस्स . संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥
- उत्तराध्ययन, अ. ३२, गा. २