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________________ श्रुतधर्म का स्वरूप | ५७ है और पदार्थों के स्वरूप को जान कर ही वह हेय, ज्ञ ेय और उपादेय पदार्थों का बोध कर सकता है । इसके अतिरिक्त जिन कथित शास्त्रों का श्रवण, किया जाए तो मनुष्य संसार परित (परिमित) कर बताया गया है कि जो व्यक्ति जिनेश्वर भगवान् के जिन वचनों की भावपूर्वक आराधना करते हैं, ऐसे संक्लिष्ट भावों से रहित एवं निर्मल स्वभाव के जीव परित्तसंसारी होते हैं । ' मनन, चिन्तन आदि सकता है । शास्त्र में वचनों में अनुरक्त हैं, इसलिए सब धर्मों से बढ़कर श्रुतधर्म ही माना गया है । इसी के आधार से अनेक भव्य प्राणी स्व-परकल्याण कर सकते हैं । धर्म के दो प्रकार श्रतधर्म भी दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार - ( १ ) सूत्ररूप श्रुतधर्म और (२) अर्थरूप श्रुतधर्म | इनमें से श्रुतधर्म के दो मुख्य अर्थ प्रतिफलित होते हैं - (१) सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक् शास्त्रों का ज्ञान - श्रुतज्ञान, और (२) सम्यग्दर्शन - पदार्थों का यथार्थ श्रद्धापूर्वक ज्ञान । जिसके द्वारा पदार्थों का सम्यक् बोध हो, उसे अर्थ कहते हैं । द्रव्यश्र ुत और भाव त इस कथन से श्रुत के भी दो भेद सूचित होते हैं - (१) द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । अनुयोगद्वार सूत्र में बताया है कि जो पत्र ( भोजपत्र, I ताड़पत्र या कागजों) या पुस्तक पर लिखा हुआ होता है, वह द्रव्यश्रुत कहलाता है, और उसे पढ़ते ही साधक उपयोगयुक्त हो जाता है, तब वह भावश्रुत कहलाता है । इस कथन से यह भी ध्वनित हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को श्रतधर्म की प्राप्ति के लिए यथावसर पाँचों अंगों सहित स्वाध्याय करना चाहिए । यदि वह स्वाध्याय (स्वयं वाचन ) न कर सकता है तो उसे विद्वान् १ जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेंति भावेणं । अमला असंकिलिट्ठा, ते हुति परित्तसंसारी ॥ २ सुयधम्मे दुविहे पण्णत्ते तं जहा सुत्तसुयधम्मे चेव अत्थसुयधम्मे चेव । -- स्थानांग, स्था. २ ३ 'दव्वसुयं पत्त - पोत्थय - लिहियं ।' — अनुयोगद्वार सूत्र ४ वाचना, पृच्छा, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, ये स्वाध्याय के पाँच अंग हैं !
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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