SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ | जैन तत्त्वकलिका : चतुथ कलिका श्रुत के विभिन्न अर्थ मूलआगम में 'सुयधम्मे' शब्द है । 'सुय' शब्द के संस्कृत में चार रूप होते हैं--श्रुत, सूत्र, सूक्त (सुत्त) और स्यूत । इन रूपों के अनुसार ही आचार्यों ने इनको व्याख्या और महिमा बताई है। श्रुत का अर्थ है--द्वादश अंगशास्त्र अथवा जीवादि तत्त्वों का ज्ञान ।' जिस प्रकार सूत्र (डोरे) में माला के मन के पिरोये हुए होते हैं, उसी प्रकार जिसमें अनेक प्रकार के अर्थ ओतप्रोत होते हैं, उसे 'सूत्र' कहते हैं । जिसके द्वारा अर्थ सूचित होता है, वह सूत्र है। जिस प्रकार सोया हुआ (सुप्त) पुरुष वार्तालाप करने पर जागे बिना उस वार्तालाप के भाव से अपरिचित रहता है, ठीक उसी प्रकार व्याख्या पढ़े बिना जिसका बोध न हो सके उसे सूत्र कहते हैं। अथवा जिसके द्वारा अर्थ जाना जाए, अथवा जिसके आश्रय से अर्थ का स्मरण किया जाए, या अर्थ जिसके साथ अनुस्यूत हो, उसे सूत्र कहते हैं। ऐसे थ त अथवा सूत्र का स्वाध्याय करना, पठन-पाठन करना, श्रत (शास्त्र) ज्ञान द्वारा जीवादि तत्त्वों एवं पदार्थों का यथार्थ स्वरूप सम्यग्दर्शन (श्रद्धापूर्वक) जानना श्र तधर्म है। श्रुतधर्म का भावार्थ यही है कि जिन भगवान् द्वारा कथित जो जो शास्त्रज्ञान है, अथवा जिनप्रज्ञप्त जो तत्त्व हैं, उनका भलीभाँति श्रवणमनन, वाचन (पठन-पाठन), निदिध्यासन और उन पर श्रद्धान करना। . जो लोग केवल चारित्रधर्म को ही धर्म मानते हैं और श्रुतधर्म उनके लिए नगण्य है, शास्त्र के अक्षर पढ़ लेने को ही जो पर्याप्त समझ बैठे हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। उन्होंने श्र तधर्म का रहस्य ही नहीं समझा है। श्रतधर्म के द्वारा हो जीव आत्मा-परमात्मा, बन्ध-मोक्ष, अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव-संवर, निर्जरा, आदि तत्त्वों के स्वरूप को भलीभाँति जान सकता १ (क) श्रुतमेव आचारादिकं दुर्गतिप्रपतज्जीव-धारणात् धर्मः श्रुतधर्मः। (ख) दुर्गती प्रपततो जीवान् रुणद्धि, सुगतौ च तान् धारयतीति धर्मः । श्रुत द्वादशांगं तदेव धर्मः श्रुतधर्मः । . -स्थानांग वृत्ति २ सून्यन्ते सूचले वार्या अनेनेति सूत्रम् । सुस्थिथतत्वेन ब्यापित्वेन च सुष्ठ क्तत्वाद् वा सूक्त, सुप्तमिव वा सुप्तम् । सिंचति क्षरति यस्मादर्थं तस्मात् सूत्र निरुक्तविधिना वा सूचयति श्रवति श्रुयते; स्मर्यते वा येनार्थः। -स्थानांग वृत्ति
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy