________________
श्रुतधर्म का स्वरूप | ५५ प्रस्तुत में ज्ञान और दर्शन का समन्वित रूप दर्शनधर्म है । दर्शनधर्म और चारित्रधर्म, ये दोनों शाखाएँ, अध्यात्म से अविच्छिन्न रहती है, तब सत्य की अभिव्यक्ति होती है। . पूर्वोक्त तीनों मोक्ष साधनों में पहले दो, अर्थात्-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों अवश्य ही सहचारी होते हैं। जैसे सूर्य का ताप और प्रकाश, एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते, वैसे ही सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञान एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते । परन्तु सम्यक्चारित्र के साथ इनका साहचर्य अवश्यम्भावी नहीं है। क्योंकि सम्यक्चारित्र के बिना भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों कुछ समय तक रह सकते हैं। फिर भी आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के क्रमानुसार सम्यक्चारित्र का यह नियम है कि जब वह प्राप्त होता है, तव उसके पूर्ववर्ती सम्यग्दर्शन एवं सम्यकज्ञान साधनद्वय अवश्य होते हैं । दर्शन और ज्ञान का साहचर्य होने से तथा सम्यग्ज्ञान सम्यग्दशनपूर्वक अवश्य होने से दोनों का समावेश श्र त (सूत्र) 'धर्म में किया गया है । अतः श्रु तधर्म और चारित्रधर्म दोनों सापेक्ष हैं। - यद्यपि श्रुतधर्म और चारित्र-धर्म दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, तथापि दोनों धर्मों का विषय और आचार भिन्न-भिन्न है। इसी कारण दोनों धर्मों में भेद है। सूत्र(श्र त) धर्म आधार है, और चारित्रधर्म आधेय है। चारित्रधर्म से पहले सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानरूप श्र तधर्म का होना आवश्यक है। क्योंकि श्रतधर्म के बिना चारित्र सम्याचारित्र नहीं हो सकता । वास्तव में चारित्रधर्म आचारधर्म का अनुष्ठान करने से पूर्व श्रु तधर्म-विचारधर्म को सम्यक् आराधना आवश्यक है । जब तक वस्तु का यथार्थ स्वरूप न जान लिया जाए, और उपादेय तत्त्व के प्रति रुचि (श्रद्धान) जागृत न हो जाए, तब तक आचरण अर्थहीन होता है। जो व्यक्ति श्रु तधर्म की आराधना किये बिना ही चारित्रधर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष का मर्म भलीभाँति नहीं समझता, न हो वह मोक्षमार्ग का अधिकारी बनता है।
__ श्रुत-धर्म : स्वरूप और विश्लेषण जानो, समझो और विचार करो-इस मूलमन्त्र द्वारा धर्मशास्त्रकारों ने मुमुक्षु जीवों के लिए श्रुतधर्म की प्रमुखता सूचित की है।
१ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुँति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थिमोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।।
-उत्तराध्ययन अ २८, गा. ३