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५४ | जैन तत्त्वकलिका : चतुर्थ कलिका
(अनजान ) व्यक्ति यदि सोने को शोधने का प्रयत्न करे तो उसका यह प्रयत्न लाभदायक नहीं हो सकता, उसी प्रकार दया, क्षमा, अहिंसा आदि का या जीव- अजीव आदि तत्त्वों का स्वरूप जाने बिना ही आचरण करने वाले व्यक्ति का जीवन विपरीत दिशा में मुड़ सकता है ।
जो व्यक्ति आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग-नरक एवं मोक्ष आदि को नहीं मानता, अथवा वीतरागप्रणीत शास्त्रों को नहीं मानता, वह व्यक्ति अहिंसा आदि का आचरण शुद्ध रूप में नहीं कर सकता । उसका आचार भोगप्रधान तथा संसार-मार्गवर्द्धक ही होता है ।
इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- पहले ज्ञान प्राप्त हो, फिर दया का पालन किया जाए; इसी रीतिनीति पर संसार के सभी संयमी - पुरुष स्थित हैं । बेचारे अज्ञानी क्या कर सकते हैं ? वे ( सम्यग्ज्ञान के बिना) श्रय और पाप ( कल्याण और अकल्याण) को कैसे जान सकते हैं ? "
विचारों का मनुष्य के आचार पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है । आचार- पालन के लिए पहले विचार, दृष्टि, श्रद्धा और ज्ञान परिपक्व होने आवश्यक हैं । इन्हीं को दर्शन कहते हैं । प्रत्येक धर्म का अपना एक 'दर्शन' होता है | दर्शन के बिना धर्म के सिद्धान्तों और तत्त्वों को युक्तियुक्त रूप से तथा तर्क, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से यथार्थरूप से समझा नहीं जा सकता और समझे बिना उन पर श्रद्धा परिपक्व नहीं हो सकती एवं परिपक्व श्रद्धा और ज्ञान के बिना किया हुआ आचरण मोक्षफलदायक नहीं हो सकता । अतः दर्शन धर्मशास्त्र में प्रतिपादित तत्त्वों तथा मान्यताओं को अपने तर्कबल से सिद्ध कर सकता है | जैनधर्म का भी अपना दर्शन है । चूँकि दर्शन वस्तुस्वभावरूप धर्म में अन्तर्भूत हो जाने से वह धर्म का ही एक अंग है ।
इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने धर्मरूपी कल्प वृक्ष की तीन शाखाएँ बताई हैं— सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । तत्त्वार्थसूत्र में इन तीनों को समन्वित रूप से मोक्षमार्ग (मोक्षसाधन) कहा गया है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को संसार का मार्ग कहा गया है ।
१ पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्व संजए ।
arti काही, किंवा नाहिइ सेयपावगं ॥ - दशबैकालिक, अ. ४, गा. १०
२ (क) सद्द्दष्टि ज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ||३|| (ख) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः ।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार
- तन्वार्थ सूत्र, अ. १, सू. १