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________________ चतुर्थ कलिका श्रतधर्म का स्वरूप (सम्यग्ज्ञान के सन्दर्भ में) प्राचीन आचार्यों ने धर्म शब्द के दो अर्थ किये हैं, (१) वस्तु स्वभाव' और (२) उत्तम सुख (मोक्ष) में धरने (रखने) वाला आचार । इस प्रकार धर्म शब्द से दो अर्थों का बोध होता है-एक वस्तुस्वभाव का और दूसरेउत्तम सुख प्रापक आचार का।। वस्तु स्वभाव-रूप धर्म तो जड़ और चेतन सभी पदार्थों में पाया जाता है । परन्तु यहाँ वस्तुस्वभावरूप धर्म का अभिप्राय आत्मा के स्वभाव या आत्मा से सम्बद्ध तत्त्वों के स्वरूप से है, जिसे दर्शन कहते हैं। यद्यपि आचाररूप धम भी आत्मा से सम्बन्धित है, परन्तु उसका सीधा सम्बन्ध चारित्र से हैं। । इस प्रकार आध्यात्मिक धर्म के दो रूप हैं-दर्शन-रूप धर्म और चारित्र-रूप धर्म । इन्हीं दोनों धर्मों को जैनागमों में 'श्रुतधर्म' (अथवा सूत्रधर्म) और 'चारित्रधर्म' कहा गया है। ये दोनों धर्म मोक्षरूपी रथ के दो चक्र हैं । इसीलिए आचार्यों ने बताया है ज्ञानक्रियाभ्या मोक्षः -ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है। अगर ज्ञान न हो, और कोरी क्रिया हो तो वह क्रिया अन्धी होगी, इसी प्रकार सिर्फ ज्ञान हो और क्रिया न हो तो कोरा ज्ञान पंगु के समान होगा। इसलिए किसी भी वस्तु के स्वभाव को जाने बिना, केवल आचरण लाभदायक नहीं हो सकता । जैसे सोने के गुण और स्वभाव से अपरिचित १ (क) 'वत्थुसहावो धम्मो' --समयसार (ख) वस्तु स्वभावत्वाद् धर्मः -प्रवचनसार ७ २ 'यो धरति उत्तमे सुखे ।' -रत्नकरण्ड श्रावकाचार; ज्ञानार्णव २।१०।१५।२१।६।१०।१५ ३ दुविहे धम्मे पन्नत्ते, तं जहा-सुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव । --स्थानांग० स्थान २, उ० १
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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