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धर्म के विविध स्वरूप ] ४६
को लोकोत्तर संघ कहते हैं । यह चार प्रकार का है-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । इन चारों के समूह का नाम लोकोत्तर संघ है।
इस चतुर्विध संघ में अनेक अवान्तर भेद हो सकते हैं-जैसे- साधु. गण में आचार्य, उपाध्याय, गणी, गणावच्छेदक, प्रवर्तक, स्थविर, तपस्वी, बहुश्र त तथा सामान्य साधुवर्ग; साध्वीगण में भी स्थविरा, प्रवर्तिनी, सामान्य आर्याएँ आदि; श्रावकगण में श्रावकगण के मुख्य-मुख्य स्थविर तथा सामान्य थावकवर्ग, इसी प्रकार श्राविकागण में मुख्य-मुख्य स्थविरा तथा सामान्य श्राविकावर्ग आदि का समावेश चतुर्विध संघ में हो सकता है।
इस लोकोनर संघ का धर्म अर्थात् चतुर्विध संघ के स्थविरों द्वारा परस्पर विचार विमर्श करके संघ के श्रय, हित और अभ्युदय के लिए द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव को देखकर निर्माण किये गए नियमोपनियम, समाचारविचार (समाचारी संघ धर्म कहलाता है । अर्थात्-संघ के अभ्युदय के साथसाथ अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उन्नति करना लोकोत्तर संघधर्म है।
निष्कर्ष यह है कि जिस धर्म के पालन से साधु-साध्वी, श्रावकश्राविकारूप चविध संघ का श्रेय हो, हित हो, तथा विकास हो, वह लोकोत्तरसंघ का धर्म है।
. लोकोत्तर संघ-धर्म में भी लौकिक संघधर्म की तरह व्यक्तिगत ज्ञानदर्शन-चारित्र, तप-संयम आदि के लाभ का विचार करते हुए भी मुख्यतया समष्टिगत लाभ का दृष्टिकोण ही सामने रखना चाहिए।
___ इस दृष्टि से चतुर्विध संघ का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह संघहित के विरुद्ध प्रवृत्ति न करे, जो व्यक्ति संघ का सदस्य होकर भी संघहित के विरुद्ध प्रवृत्ति करता हो, उसे सहयोग न दे। कोई व्यक्ति (साधुवर्ग या श्रावकवर्ग) संघधर्म के विरुद्ध अपनी वैयक्तिक स्वच्छन्दता को लेकर प्ररूपणा करता है, प्रचार करता है, संघ में फूट डालता है, उसे भी संघ का द्रोही समझकर उसको सहयोग न दे।
इसी तरह कोई साधु-साध्वी अथवा श्रावक-श्राविका संघस्थविरों द्वारा सर्वहित की दृष्टि से दूरदर्शितापूर्वक बनाए गए नियमोपनियमों को बन्धन समझकर उनकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करता, उन नियमों को ठुकराता या भंग करता है, संघ की अवहेलना करता है, या संघ से बहिष्कृत होकर संघ की निन्दा करता है, ऐसा व्यक्ति संघ की अविनय-आशातना करता है, संघ का द्रोह करता है। लोकोत्तर संघधर्म के पालक साधकों का कर्त्तव्य है कि ऐसे व्यक्तियों को सम्मान या प्रश्रय न दें।