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५० | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
संघ के प्रत्येक सदस्य को श्रीसंघ की आज्ञा का पालन करना, संघधम का पालन करना है, क्योंकि शास्त्र में बताया है कि श्रीसंघ का अविनयअपमान करने वाला व्यक्ति दुर्लभबोधि दुष्कर्म का बन्ध कर लेता है, जबकि श्रीसंघ को श्रद्धा-भक्ति, विनय-बहुमान अथवा स्तुति करने वाला व्यक्ति सुलभबोधि शुभकर्म का उपार्जन करता है, जिसके प्रभाव से वह व्यक्ति जिस योनि में उत्पन्न होगा, वहाँ धर्म-प्राप्ति एवं बोधि (सम्यक्त्व) प्राप्ति सुलभ हो जाएगी। संघधर्म का महत्त्व
शास्त्र में संघधर्म का महत्त्व व्यक्तिगत श्रुत-चारित्र धर्म की साधना से भी बढ़कर बताया है। उदाहरणार्थ-कोई साधु विशिष्ट अभिग्रह या प्रतिज्ञा धारण करके श्रतधर्म या चारित्रधर्म की विशिष्ट साधना में तल्लीन हो, उस समय श्रीसंघ (लोकोत्तर चतुर्विध संघ) को यदि उस साधु की अनिवार्य आवश्यकता पड़ जाए और श्रीसंघ उक्त साधु को आमन्त्रित करे या आदेश (संघस्थविरों द्वारा सर्वसम्मति से निर्धारित) दे तो उस समय उक्त साधु को अपनी व्यक्तिगत विशिष्ट साधना को छोड़कर श्रीसंघ का कार्य पहले करना चाहिए, अर्थात्-श्रीसंघ का आदेश शिरोधार्य करके उसका आमन्त्रण स्वीकार कर लेना चाहिए। जैसे-पाटलिपुत्र नगर में एकत्रित श्रीसंघ को आचार्य भद्रबाहु स्वामी की आवश्यकता पड़ी तो वे अपनी योगसाधना को छोड़कर संघ-कार्य के लिए पधारे।'
श्रीसंघ पर कोई विपत्ति आ पड़ी हो, या आन्तरिक विग्रह उत्पन्न हो गया हो, अथवा कोई महत्त्वपूर्ण समस्या हो, उस समय विशिष्ट लब्धिशाली एवं प्रतिभाशाली साधु का कर्त्तव्य है कि श्रीसंघ के आमन्त्रण पर अपनी विशिष्ट साधना को गौण करके श्रीसंघ के आदेश को प्रमुखता दे।
शास्त्र का कथन है कि गुरु और सहमियों को किसी प्रकार की शान्ति पहँचाने से कर्मनिर्जरा होती है, संघ की रक्षा होती है । यही वस्तुतः संघधर्म की रक्षा है।'
पूर्वाचार्यों ने लोकोत्तर 'संघ' को भगवान् मानकर उसकी विविध उपमाओं और पहलुओं से स्तुति की है और 'नमो संघस्स' (संघ को नमस्कार
१ भद्रबाहु स्वामी की इस कथा के लिए देखें - 'प्रभावकचरित्र' २ गुरुसाहम्मिय-सुस्सूसणयाए विणयपडिवत्ति जणयई.."मणुस्स देवसुग्गइओ निबंधइ। सिद्धिसोग्गइ च विसोहेइ ।
-उत्तरा. २६४