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४८ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
उसमें समष्टि के हित के विरुद्ध, व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष के हित का विचार नहीं किया जाता । इसके विपरीत समष्टिहित को जोखिम में डालकर व्यक्तिगत या वर्गगत हित का विचार करना संघधर्म की जड़ उखाड़ना है । जिस पद्धति या कार्य से समष्टि का श्र ेय और हित सुरक्षित होता हो, उसी में संघधर्म की महत्ता और शोभा है ।
संघधर्म को जीवन में उतारने के लिए संघ के प्रत्येक सदस्य को दायित्वपूर्वक संघ के नियमोपनियमों का पालन करना आवश्यक है । संघ, समाज की प्रतिनिधि संस्था है। संघ के श्र ेय और सम्मान में ही मेरा श्र ेय और सम्मान है, इस स्वर्णसूत्र को भूलकर स्वार्थवश जो व्यक्ति संघधर्म को भंग करता है, वह संघधर्म का नाशक है । लौकिक संघधर्म में लोकव्यवहार चलाने के लिए नैतिक आचार-व्यवहार, सामूहिक तंत्र का गठन और लोकोत्तर संघधर्म से अविरुद्ध सम्बन्ध का समावेश हो जाता है ।
यद्यपि लौकिक संघधर्म और लोकोत्तर संघधर्म के नियमोपनियम और आचार-व्यवहार भिन्न भिन्न हैं, तथापि दोनों प्रकार के संघधर्म नीति-धर्म को लेकर परस्पर अत्यधिक सम्बद्ध हैं । इन दोनों को एकान्त भिन्न नहीं माना जा सकता । बल्कि लौकिक संघधर्म का भलीभाँति पालन किया जाए तो लोकोत्तर संघधर्म भी व्यवस्थित रूप से चलेगा ।
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कुछ लोग लौकिक संघधर्म के संगठन को, तथा संघधर्म के द्वारा किये जाने वाले कार्यों को आरम्भ समारम्भजनक तथा एकान्त पाप बतलाते हैं । ऐसे लोग भ्रम में हैं । जिस लौकिक संघधर्म के पालन से मनुष्य समाज नीच कर्मों, कुव्यसनों, महारम्भ - महापरिग्रहरूप पापकर्मों का त्याग करके अमुक मर्यादा में धर्म का पालन करता है, विवाहादि कार्यों में नीति-धर्म की मर्यादाओं को सुरक्षित रखता है, साथ ही जिससे संसार का अभ्युदय, पुण्यसंचय होता है और श्रुत चारित्रधर्म के लिए क्षेत्र तैयार होता है, उस लौकिक संघधर्म को एकान्त पाप कहना कथमपि उचित नहीं कहा जा
सकता ।
तात्पर्य यह है कि लोकव्यवहार में करणीय कार्यों को एकान्त पाप कहकर लोग त्याग न दें और अवनति के मार्ग पर अग्रसर होकर निरंकुश रूप से महान् पापों की वृद्धि न करें, नैतिक अंकुश में रहें, लौकिक संघधर्म की स्थापना का यही उद्देश्य है ।
लोकोत्तर- संघधर्म
तीर्थंकरों के द्वारा गणसमुदायरूप चातुर्वर्ण्य चतुविध श्रमणप्रधानसंघ