________________
धर्म के विविध स्वरूप | ४७
संघशक्ति को संघधर्म से अनुप्राणित करने से वह पारस्परिक संघर्ष, अधिकार प्राप्ति के कलह, वैमनस्य से बच जाती है, अनुशासित और कर्तव्यतत्पर रहती है, साथ ही उक्त संघ एवं संघस्थविर के प्रति श्रद्धाशील एवं वफादार रहकर संघस्थविर द्वारा संघहित के लिए बनाये हुए नियमोपनियमों एवं आचार-विचारों का पालन करने को उद्यत रहती है। यही कारण है कि दूरदर्शी धर्मप्राण संघस्थविर बौद्धिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि विविध शक्तियों और क्षमताओं वाले सदस्यों को संगठित करके उनकी शक्तियों और क्षमताओं को विभिन्न विनियोजित करते हैं ताकि पारस्परिक संघर्ष और कलह में उनकी शक्तियों को दुरुपयोग न हो, साथ ही संघ के विभिन्न घटकों (बालक, वृद्ध, युवक, स्त्री-पुरुष आदि) का समन्वय करके संघ धर्म- पालन में केन्द्रित करे, ताकि संघर्ष को विवेकपूर्वक दूर किया जा सके ।
संघधर्म का ध्येय
संघधर्म का ध्येय व्यक्ति के श्र ेय के साथ-साथ समष्टि के श्र ेय का साधन करना है । समष्टि के हित के लिए जब व्यक्ति-हित का बलिदान आवश्यक हो, तब व्यक्तिगत हित को गौण करके समष्टिगत हित-साधन करना संघधर्म का ध्येय बन जाता है । संघधर्म को व्यवस्थित रखने का उत्तरदायित्व संघ के प्रत्येक सदस्य पर रहता है । गणधर्म की तरह संघधर्म के भी लौकिक और लोकोत्तर, यो दो भेद होते हैं ।
लौकिक संघधर्स
लौकिक संघधर्म के सम्बन्ध में टीकाकार कहते हैं - संघधर्म का अर्थ है— गोष्ठी - अर्थात् सभा, मंडली, मंडल, संस्था, परिषद् या संघ की समाचारी आचारसंहिता अथवा विधान और नियमावली |
लौकिक संघधर्म के कई अंग हैं । जैसे कि - अखिल भारतीय राष्ट्रीय महासभा (A. I. National Congress), अथवा जैन महामण्डल, महासभा, संघ (स्थानकवासी आदि परम्पराओं की धर्म - संस्था), अथवा अन्य कोई सार्वजनिक संस्था या श्रावक संघ आदि । लौकिक संघधर्म के अन्तर्गत राष्ट्रीय, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संगठन हो सकते हैं, बशर्ते कि उनमें नैतिकता, अहिंसा, सत्यादि, धर्म- न्याय आदि का पुट हो, तथा वे सम्पूर्ण राष्ट्र से सम्बंन्धित हो। जिसमें किसी एक ही वर्ग समाज या जाति का विचार किया जाता हो उसे कुलधर्म भले ही कहा जा सके वह समग्र राष्ट्र का संघधर्म नहीं हो सकता ।
संघधर्म के अनुसार जिस संस्था या सभा की स्थापना की जाती है,