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४६ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका ऐसे संघ (समूह) द्वारा व्यक्तिगत स्वार्थों को तिलांजलि देकर समष्टि के हित
और श्रेय के लिए जो नियमोपनियम बनाये जाते हैं, आचार संहिता का गठन किया जाता है, उन नियमोपनियमों या आचारसंहिता को संघधर्म कहते हैं। संघ की विराट शक्ति
संघ (समूह) में अपार शक्ति है। एक व्यक्ति की शक्ति चाहे जितनी ही क्यों न हो, वह कृतकार्य नहीं हो सकती, किन्तु जब अनेक व्यक्तियों की बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र करके संघ-रूप में परिणत (संगठनबद्ध) कर दिया जाता है, तब वह बड़े-बड़े असम्भव माने जाने वाले कार्यों को कर सकती है । नीतिकार भी संघशक्ति की महत्ता स्वीकार करते हुए कहते हैंनगण्य समझे जाने वाले थोड़े-से पुरुषों की संहति (संगठन) कल्याणकारिणी होती है। जैसे, तिनकों जैसी तूच्छ वस्तुओं को एकत्र करके उनका रस्सा बना दिया जाए तो बड़े-बड़े मतवाले हाथियों को बाँधने में समर्थ होता है । अतः संघशक्ति महान् कार्यों को अल्प समय में सिद्ध कर सकती है।
_जब निर्जीव समझी जाने वाली वस्तुओं का संगठन अद्भुत कार्य करके दिखा सकता है तो विवेक-बुद्धि-सम्पन्न मानव-जाति की संघ शक्ति का तो कहना ही क्या ? राष्ट्र, गण, समाज और धर्म के तंत्र का संचालन संघशक्ति के बल से ही चलता है। कार्य छोटा हो या बड़ा, उसकी सफलता या सिद्धि के लिए संघशक्ति परम आवश्यक है।
परन्तु एक बात निश्चित है कि मनुष्यों की संगठित शक्ति को यथार्थ और धम-नीति का दिशानिर्देश न मिले तो वह संगठित शक्ति विपरीत दिशा में चल पड़ती है, फिर वह संगठित शक्ति या तो परस्पर लड़ने-भिड़ने, अपनेअपने कर्तव्यों को भूलकर अधिकारों के लिए संघर्ष करने में समाप्त हो जाती है, अथवा फिर निर्बलों को दबाने, सताने या चूसने में या पीड़ितपददलित करने में लगती है। ऐसी संघ-धर्मविहीन संघ शक्ति से कल्याण तो दूर रहा, प्रायः अकल्याण ही होता है। इसीलिए यहाँ संघधर्म से युक्त संघशक्ति का ही समर्थन है।
१ .संघेशक्तिः कलौयुगे। २ संहतिः श्रेयसी पुसां स्वकुलरल्पकैरपि ।
अल्पानमपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका । तृणैर्गुणत्वमापन्न बैध्यन्ते मत्तदन्तिनः ।।
-हितोपदेश