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धर्म के विविध स्वरूप | ४५
गणवासी समस्त साधुसाध्वियों का भी कर्त्तव्य है कि वे गण एवं गणस्थविर के प्रति विनीत, आज्ञाकारी एवं वफादार रहें, गण के परम्परागत आचार-विचार का समुचित रूप से पालन करें, गण के प्रतिकूल गण में फूट डालने का या गण की आचारसंहिता से विपरीत कार्य न करें ।
लोकोत्तरगण में साधु-साध्वीगण की तरह श्रावक-श्राविकगण भी प्रविष्ट होते हैं और उन्हें भी उपर्युक्त प्रकार से गणधर्म का पालन करना अनिवार्य होता है ।
उपासक दशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वणन आता है कि आनन्द श्रमणोपासक ने भगवान् महावीर के समक्ष प्रतिज्ञा धारण करते हुए उनसे निवेदन किया कि 'मैं आज से ग्रहण किये गए व्रतों और नियमों का पालन छह प्रकार के आगार (छूट) रखकर करूँगा।' उन छः कारणों में से एक कारण 'गणाभिओगेणं' (गणाभियोग) भी है । अर्थात् अगर 'गण' अथवा 'गणाधिपति' का विशेष अनुरोध हो तो मुझे वह कार्य करणीय होगा, उससे मेरा गृहीत व्रतनियम खण्डित नहीं समझा जाएगा ।
इससे स्पष्ट है कि धार्मिक व्रत नियमों को ग्रहण करते समय भी 'गणधर्म' या 'गण' का विशेष ध्यान रखा जाता था कि कहीं मेरे कारण गण में फूट न पड़ जाए, अथवा गण का गौरव काम न हो जाए ।
लौकिक गण शब्द आजकल 'बिरादरी' अर्थ में प्रचलित है । बिरादरी का 'चौधरी' या 'सरपंच' गणस्थविर समझा जाता है । अतः जैसे कुलधर्म ठीक हो जाने पर 'गणधर्म' भी भलीभाँति चल सकता है, वैसे ही गणधर्म ठीक होने पर राष्ट्रधर्म या संघ (समाज) धर्म का भलीभाँति पालन हो हो सकता है ।
इस प्रकार लौकिक गण भी समाज और राष्ट्र की सब प्रकार से उन्नति करता हुआ लौकिक गणधर्म के पालन से सब प्रकार की सुख-शान्ति प्राप्त करता है, वैसे ही लोकोत्तर गण भी आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ लोकोत्तर गणधर्म के पालन से यहाँ धार्मिक संघ में सब प्रकार की सुव्यवस्था से सुख-शान्ति प्राप्त करता हुआ मोक्ष के अक्षय सुख को प्राप्त करता है । (७) संघधर्म
व्यक्तियों का या गणों का समूह 'संघ' कहलाता है । यह समूह समान आचार, विचार और व्यवहार तथा समान सभ्यता और संस्कृति को लेकर बनता है अथवा बनाया जाता है। ऐसा समानधर्मा संघ वर्तमान युग में समाज ( अथवा मण्डल, परिषद्, संस्था, संस्थान या सभा, सोसाइटी) कहलाता है ।