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४४ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
(१) आचार्य का गणधर्म-यह है कि गण (गच्छ) की भलीभाँति रक्षा करते हुए गण में ज्ञानवृद्धि करते हुए ज्ञानाचार में पुरुषार्थ करे, सम्यक्त्वविशुद्धि के उपाय सीखते-सिखाते हुए दर्शनाचार में पुरुषार्थ करे, गण में चारित्र की विशुद्धि करते हुए चारित्राचार में पुरुषार्थ करे, तप-आचार का प्रचार करे तथा तप, संयम की वृद्धि के लिए प्रयत्न करे।
(२) उपाध्याय का गणधर्म - यह है कि गण के साधुसाध्वीगण को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर विद्वान् बनावें, यथासम्भव गच्छ में ज्ञान प्रचार करें।
(३) गणी का गणधर्म है-गण में साधकों द्वारा हो रही क्रियाओं का निरीक्षण-सर्वेक्षण करते रहें । गण में हो रही अशुभ क्रियाओं को सावधानी से दूर करें।
(४) गणावच्छेदक का गणधर्म है- मुनियों को साथ लेकर देश-परदेश से गण के साधु-साध्वियों के लिए कल्पनीय धर्मोपकरण (वस्त्र, पात्र तथा ज्ञान सामग्री-पुस्तकादि) जुटावें और साधुसाध्वी की आवश्यकतानुसार वितरण करें ताकि गण सुरक्षित रहे।
(५) प्रवर्तक का गणधर्म है कि वह अपने साथ रहने वाले मुनियों को आचार-विचार में प्रवृत्त एवं प्रशिक्षित करें। कहीं साधुओं का सम्मेलन, गोष्ठी या संगीति हो तो वहाँ पधारने वाले मुनिवरों को आहार-पानी, औषध आदि लाकर दे, उनकी सेवाशुश्रूषा वैयावृत्य में दत्तचित्त रहें।
(६) स्थविर का गणधर्म-यह है कि जो आत्माएँ या गण के जो साधक धर्म से पतित, विचलित एवं भ्रष्ट हो रहे हों, उन्हें धर्म में स्थिर करें। जिन लोगों ने अभी तक धर्म का स्वरूप नहीं समझा है, उन्हें धर्म का स्वरूप समझाकर धर्मपथ पर आरूढ़ करें।
यद्यपि 'गणधर' नामक एक पदवी भी होती है, परन्तु वह श्री तीर्थकरदेव के विद्यमान होने पर ही होती है, क्योंकि जो तीर्थंकरदेव का पट्टशिष्य (प्रमुख अन्तेवासी) होता है, वही गणधर कहलाता है।
लोकोत्तर गण में जो पदवीधारी मुनिवर हों, वे हो 'गणस्थविर' कहलाने योग्य हैं। वे लोकोत्तर गण में ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं तप-संयम की उन्नति एवं वृद्धि के लिए तथा गणवासी साधु-साध्वीगण शान्तिपूर्वक संयमवृत्ति की आराधना करके सुगति के अधिकारो बनें, इस हेतु से तदनुसार साधु-समाचारी का निर्माण करें, नियमोपनियम बनाएँ।