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धर्म के विविध स्वरूप | ४३
कह सकते हैं, राजा चेटक थे । कोणिक राजा का छोटा भाई विहल्लकुमार, Sator द्वारा हार और सेचनक हाथी की जबरन माँग और धमकी के कारण राजा चेटक (अपने माता - मह) की शरण में आकर रहने लगा । जब चेटक को कोणिक के अन्याय का पता चला तो उन्होंने अठारह गणराजों को एकत्र करके कोणिक के अत्याचार का प्रतीकार करने के लिए परामर्श माँगा । अठारह गणराजों ने कोणिक राजा के अत्याचार के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट किया और यह वचन दिया कि अगर युद्ध का अवसर आया तो गणतन्त्र के समस्त राजा मिलकर गणतन्त्र संचालक चेटक राजा की सहायता करेंगे । इस प्रकार गणधर्म के पालन के लिए समस्त गणराजों ने अपने प्राणों की बाजी लगाने का निश्चय कर लिया था । गणधर्म में असीम शक्ति विद्यमान है । गणतन्त्र पद्धति से चलाये जाने वाले गणराज्य
समस्त गणराज्यों की एक आचार संहिता होती थी, कोई गणराज्य किसी दूसरे की भूमि हड़पने या अन्याय-अत्याचार का दुष्कृत्य नहीं कर सकता था, न ही जनता पर अन्याय-अधर्मपूर्ण नियम थोप सकता था । सब गणराजों अथवा गणप्रमुखों का शासनकाल नियत समय तक का ही होता था । गणराज का चुनाव जनता की सम्मति से हुआ करता था । '
गणधर्म राष्ट्रधर्म का प्राण है । गणधर्म का पालन तभी सुचारु रूप से हो सकता है, जबकि गणराज्य का प्रत्येक सभ्य (नागरिक) गणधर्म के पालन के लिए सचेष्ट रहे, समय आने पर गणराज्य के लिए सभी प्रकार का त्याग करने को कटिबद्ध हो, गणराज्य पर विपत्ति आने पर अपने निजी स्वार्थी और मतभेदों को तिलांजलि देकर गणराज्य, समाज एवं राष्ट्र के लिए अपना बलिदान देने तक के लिए तैयार हो ।
गणधर्म के भी कुलधर्म की तरह दो प्रकार हैं-लौकिक गणधर्म और लोकोत्तर गणधर्म |
लौकिक गणधर्म के विषय में हम ऊपर कह आए हैं । लोकोत्तर गणधर्म साधुओं अथवा कुछ अंशों में देशविरत श्रावकों के द्वारा आचरणीय होता है । यहाँ गण साधुओं के अनेक कुलों के समूह का नाम है । ऐसे गण का जो धर्म है, आचार-विचार हैं, नियमोपनियम हैं, जो भी सुन्दर शुभ परम्परा है, वह गणधर्म कहलाता है । साधुओं के गण में पदवीधर होते हैं - ( १ ) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) गणी, (४) गणावच्छेदक, (५) प्रवतक और (६) स्थविर |
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१ देखिये, निरयावलिका सूत्र में गणराज्यों का वर्णन ।