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________________ ४० | जैन तत्त्वकलिका तृतीय कलिका परिजन समूह कुल कहलाता है। परिजनों का एक सरीखा धर्मानुकूल आचार-विचार, व्यवहार और परम्परागत कार्य - कुलधर्म कहलाता है । जैसे - जिन कुलों का अहिंसा धर्म के अनुकूल यह स्वाभाविक धर्मसंस्कार है कि मांस भक्षण न करना, मद्यपान न करना, शिकार न करना, परस्त्रीगमन या वेश्यागमन न करना, जुआ न खेलना, चोरी न करना, किसी से याचना करके न मांगना - हाथ न पसारना, दान देना, अन्तिम समय निकट आते हो गार्हस्थ्य - प्रपंच छोड़कर आत्मधर्म में प्रवृत्त होना आदि । ये सब कुलधर्म हैं । शिकार खेलना, जुआ खेलना, पशुबलि करना आदि कुल धर्म नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इनमें शुद्ध धर्म का पुट नहीं है । अतः कुलधर्म की कसौटी है - जिस आचार-विचार से, जिस व्यवहार और कार्य से कुल की प्रतिष्ठा, शान, खानदानी और मान-मर्यादा बढ़ती है, कुल ऊँचा उठता है, कुल में कुलीनता आती है, वह आचार-विचार, व्यवहार और कार्य कुलधर्म है । जिस व्यवहार से परिजनसमूह या समाज में जाति-गत उच्च नीचता, स्पृश्यास्पृश्यता, विषमता, वर्गविग्रह, अव्यवस्था आदि उत्पन्न हों, उसे कुलधर्म नहीं, किन्तु 'कुलकलंक' कहा जाना चाहिए । x अब तक चार प्रकार के धर्मों में संस्कारिता, नागरिकता, राष्ट्रीयता और धर्मशीलता के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार किया था, किन्तु इन चारों प्रकार के धर्मों का विकास मानव समाज में कहाँ से, कैसे और कब से होता है ? इस पर गहराई से विचार करने पर यह बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि उपर्युक्त धर्मों का उद्भव स्थान गृहसंस्कार हैं, माता-पिता के सद्व्यवहार व सदाचरण से गृहसंस्कार सुधरते हैं । ये ही गृहसंस्कार सुधरते-सुधरते बालक के शैशवकाल से किशोरावस्था को प्राप्त होने पर कौटुम्बिक संस्कारों के रूप में परिणत होते जाते हैं । उसके पश्चात् बालक की उम्र और बुद्धि का विकास होने के साथ-साथ वे कौटुम्बिक संस्कार विस्तीर्ण होकर कुलसंस्कार के रूप में परिणत होते जाते हैं । इसलिए कुलधर्म के पालन के लिए कुल संस्कारों का सुधारना आवश्यक होता है तथा कुल संस्कारों को विशुद्ध बनाने के लिए सर्वप्रथम गृहसंस्कार और कौटुम्बिक संस्कारों को सुधारना आवश्यक है । कुलधर्म का महत्त्व पूर्वोक्त चारों धर्मों तथा लोकोत्तर श्रुत चारित्र धर्मों के पालन में, समाज की सुख-शान्ति बढ़ाने में कुलधर्म का बहुत हो महत्त्वपूर्ण हाथ है । आज समाज और राष्ट्र में भ्रष्टाचार, अनाचार एवं अशान्ति है, तथा संपूर्ण
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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