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धर्म के विविध स्वरूप | ४१
विश्व में भी जो अशान्ति है, अव्यवस्था है, उसका कारण कुलधर्म की अवहेलना है । कुलधर्म के सम्यक् पालन से समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण हो सकता है । कुल एक प्राथमिक इकाई है, उससे सम्बद्ध धर्म ग्रामधर्मादि की उत्पत्ति के लिए आवश्यक है ।
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कुलधर्म का व्यापक क्षेत्र
कुलधर्म का क्षेत्र काफी विस्तृत है । वह मुख्यतया दो भागों में बँटा हुआ है - (१) लौकिक कुलधर्म और (२) लोकोत्तर कुलधर्म |
लौकिक कुलधर्म में माता-पिता, कुटुम्ब - कबीला एवं उस कुल (वंश) . के अन्य गुरुजनों की धर्मानुकूल आज्ञा एवं कुल परम्परा का पालन करते हुए वंशवृद्धि का, वंशपालन का वंश की व्यवस्था का, तथा लोकजीवन की समुचित शिक्षा-दीक्षा का कुल के सुसंस्कारों की सुरक्षा और वृद्धि का समावेश होता है । कुलस्थविर कुल में सुख-शान्ति, समृद्धि और संस्कार शुद्धि के लिए धर्मानुकूल कुछ नियमोपनियम एवं आचार-विचार पद्धति निश्चित करते हैं । उनके अनुरूप प्रवृत्ति करना भी कुलधर्म का पालन है । लौकिक कुलधर्म और लोकोत्तर कुलधर्म, दोनों की शिक्षा-दीक्षा की पद्धति में भले ही अन्तर प्रतीत होता हो, लेकिन दोनों का आदर्श एक ही हैमानव समाज में सुख-शान्ति स्थापित करना । लौकिक कुलधर्म इस आदर्श पर पहुँचने के लिए शुभ नीतिधर्मानुकुल प्रवृत्तिमार्ग का विधान करता है, और लोकोत्तर कुलधर्म धर्मानुरूप शुभ निवृत्ति-मार्ग का । यह शुभ प्रवृत्ति और शुभ निवृत्ति दोनों मिलकर धर्म का परिपूर्ण रूप होता है । यद्यपि प्रवृत्ति मार्ग की अपेक्षा, निवृत्ति मार्ग अधिक सीधा लगता है, परन्तु आचरण में वह अत्यन्त कठिन है, जबकि प्रवृत्ति मार्ग टेढ़ा-मेढ़ा होने पर भी सगम है ।
सत्प्रवृत्ति द्वारा कुल के आदर्श को उन्नत बनाना पापमय नहीं है, किन्तु शुभ अध्यवसायपूर्वक सच्ची कुलीनता प्राप्त करना धर्ममय कार्य है । इसलिए लौकिक कुलधर्म का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला सच्चा कुलधर्मी अपने कुल परम्परागत सद्व्यवहार का त्याग नहीं कर सकता । कुलधर्मी भूखा मर जाएगा, मगर उदर की ज्वाला को शान्त करने के लिए चोरी, जारी या असत्य का आचरण करना कदापि पसन्द नहीं करेगा ।
मनुष्य के कुलधर्म की कसौटी भी विपत्ति पड़ने पर होती है । नीच कुल में जन्म लेने मात्र से कोई नीच नहीं कहलाता, अपितु असत्प्रवृत्ति करने वाला ही नीच कहलाता है । सत्प्रवृत्ति द्वारा चरित्र उच्च बनाने वाला