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धन के विविध स्वरूप | ३६
अगर पाखण्ड धर्म से धर्म प्रचार के बदले अधर्म फैलता है, तो उसे धर्म कैसे कहा जा सकता है ? अतएव पाखण्डधर्म धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करता है। इस व्रतधर्म के माहात्म्य से धर्मशील मनुष्यों में दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास, निर्भयता एवं स्थिरता की शक्ति तथा स्फूर्ति का विकास होता है, जिससे वह समय आने पर कठोर से कठोर व्रतों का पालन कर सकता है।
व्रतधर्म का पालक व्यक्ति मंत्री, क्षमा, आत्मौपम्य, दया आदि सद्गुणों तथा अपने प्रण से, चाहे जितना संकट, विघ्न, यहाँ तक कि मृत्यु का प्रसंग भी क्यों न आए, नहीं हटता। ऐसे व्रतधर्मी प्राणवियोग की स्थिति हो तो भी मेरु के समान अपने व्रत-प्रण या प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं। व्रतधर्मी का महान् धम यही है कि महापुरुषों या प्रशास्ता-स्थविरों द्वारा निर्धारित धर्म-मर्यादाओं का कदापि उल्लंघन न करें। ऐसा सुव्रतो समाज और देश के चरणों में अपने जीवन को बलि देकर भी अन्याय का प्रतीकार और न्याय की रक्षा करता है। - अंगीकृत व्रत-नियमा, त्याग-तप-प्रत्याख्यान, प्रण, प्रतिज्ञा आदि को अन्तिम श्वास तक पूर्ण रूप से निभाना, उसके पालन में दृढ़ रहना ही व्रतधर्म का तात्पर्य है। कठिनाइयों, मुसीबतों, असुविधाओं, अशुभ इच्छाओं एवं आत्म-दुर्बलता को जीतने के लिए तथा निश्चय पर अटल रहकर आत्मशक्ति बढ़ाने के लिए व्रतधम की नितान्त आवश्यकता है। 'जहाँ तक बन पड़ेगा, पालन करूंगा', इस प्रकार के उद्गार दुर्बलता, कायरता, आत्मविश्वास की कमी, शुभनिश्चय में बाधक के सूचक हैं। ऐसे लोग छोटेसे-छोटे नियम पर भी दृढ़ नहीं रह सकते, उनका मन बात-बात में ढच्चुपच्चु और संशयग्रस्त बना रहता है।
.पाखण्डधर्म में लौकिक और लोकोतर, दोनों प्रकार के व्रतों के पालन अथवा दृढ़ निश्चय का समावेश हो जाता है। जैसे साधु जीवन में व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन होता है, वैसे गृहस्थ-जीवन में भी व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन हो सकता है।
(५) कुलधर्म परिजनों का समूह कुल कहलाता है। घर और कुटुम्ब से आगे का
१ देखें-'गिहिवासे वि सुब्वए'..
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-उत्तराध्ययन सूत्र अ. ५, गा. २४